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________________ ३६४ आनम्द प्रवचन : भाग ६ अन्य कई विद्याएँ बहुत लम्बे अभ्यास के बाद अनुभव से आती हैं । इसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान भी केवल शास्त्रों को रटने से, विविध पुस्तकों के पढ़ने मात्र से या किसी का अन्धानुकरण करने से ही नहीं आता, उसके लिए भी प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता होती है । अनुभूति की वेदी पर ही संयम, यम-नियम आदि का पालन या आदर्शों का आचरण हो सकता है । जो व्यक्ति केवल निश्चयनय की बातें सुनकर या पढ़कर अथवा घोंटकर चलेगा, वह व्यवहारनय से बिलकुल अनभिज्ञ या अधकचरा व्यक्ति समस्याओं के आने पर धोखा खाएगा । स्वयं भी कष्ट में पड़ेगा और जिनको वह अध्यात्म की एकांगी बात बतायेगा वह भी दुःख में पड़ेंगे । एक अनुभवहीन वेदान्तवादी बहन किसी अर्धविदग्ध उपदेशक से सुन आईनैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चनं क्लेदयत्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ " इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न इसे सुखा सकती है ।" निश्चयनय की तरह यह "आत्मा न तो खाती है, न पीती है, वह तो पानी ला सकता है, न ही हवा इसे बात उसके दिमाग में घूम रही थी कि बिलकुल निराहारी है ।" घर आते ही उसने चूल्हे की हड़ताल कर दी । जब आत्मा निराहारी है तो आहार क्यों बनाया जाए ? शाम को उसके पति अपने दफ्तर से आए । घर में कदम रखते ही चूल्हा ठंडा देखा, श्रीमतीजी को लेटे हुए और उदास देखा तो बोले"क्या आज तबियत ठीक नहीं है ? क्या आज रसोई नहीं बनेगी ?" एकान्त निश्चयवादी उस महिला ने तपाक से कहा - "आत्मा तो निराहारी है, वह तो अजर-अमर है, न कटता है, न जलता है, न गलता है, और न सूखता है । फिर किसके लिए रसोई बनाऊँ ?" "अच्छा, आज निश्चयनय या वेदान्त का पाठ पढ़ आई हो, इसी से ऐसा कह रही हो । पर तुम्हें पता है, आत्मा के साथ शरीर भी लगा है, इन्द्रियाँ भी और मन भी । ये सम्पर्कसूत्र न होते तो न खाना होता, न सूंघना, चखना, सुनना और स्पर्श करना होता । परन्तु अभी तो तुम्हारी आत्मा उस भूमिका पर नहीं पहुँची, इसलिए सभी कुछ व्यवहार करना पड़ेगा ।" 1 फिर भी वह पूर्वाग्रही और जिद्दी महिला नहीं मानी और कहती रही - "ये सब औपाधिक हैं, बाह्य संयोग हैं, इनका आत्मा से कोई वास्ता नहीं है, ये तो अपने आप आते हैं और हट जाते हैं, आत्मा अपने आप में ठीक वैसी ही है, जैसा कि मैंने कहा हैं ।" V अब तो पति महोदय से न रहा गया। उन्होंने उसके निश्चयवाद को परखने के लिए एक जलती हुई लकड़ी लाकर जरा-सी छुआ दी। फौरन महिला चिल्ला उठी- "ओ बापरे ! मैं तो जल मरी ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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