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________________ अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३३७ ____ वस्तुतः नीतिवाक्यामृत के अनुसार “असमय में कहना ऊसर में बीज डालने के बराबर है।" वक्ता को अपनी बात बहुत ही संक्षेप और थोड़े ही समय में कहने का अभ्यास होना चाहिए । घंटों गला फाड़ने से और अप्रासंगिक बातों को लाकर व्याख्यान या उपदेश को लम्बा करने से न तो श्रोताओं के पल्ले ही कुछ पड़ता है, न श्रोताओं पर कुछ प्रभाव ही। वे भी भाषण सुनने के आदी हो जाते हैं। विप बर्नेट' ने उपदेश की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में कहा था— "वह उपदेश उत्तम नहीं, जिसे सुनकर श्रोता लोग बातें करते एवं वक्ता की तारीफ करते जाएं, बल्कि उत्तम तो वह उपदेश है, जिसे सुनकर वे विचारपूर्ण एवं गम्भीर होकर जाएं, तथा उस पर मनन के लिए एकान्तवास की तलाश करें।" आजकल के उपदेशकों की आलोचना करते हुए पाश्चात्य उपदेशक "अलजर' ने कहा है--"हम उपदेश देते हैं-टनभर, श्रोता सुनते हैं-मनभर और ग्रहण करते हैं-कणभर ।" जो उपदेशक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र और परिस्थिति न देखकर अयोग्य श्रोताओं के सामने ऊँची-ऊँची दर्शन और अध्यात्म की बातें क्लिष्ट और दुरूह भाषा में परोसता है, वह उनकी दष्टि में अपनी तौहीन कराता है, श्रोता लोग ऊबकर उसे ही गालियां देने लगते हैं। इसके विपरीत प्रसंगवश सीधी सरल भाषा में कही हुई बात श्रोताओं के गले उतर जाती है और वे उसे ग्रहण भी कर लेते हैं, उस वक्ता की भी प्रशंसा करते हैं, जो उन्हें कठिन बात को सरल भाषा में समझा देता है। कुमुदचन्द्र नाम के विद्वान जो बाद में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर नाम से जैन जगत् में विख्यात हुए, दिग्विजय के लिए भारत भर में घूम रहे थे। बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान उनसे पराजित हो गए। एक जैनाचार्य वृद्धवादी उन्हें जंगल में मिले । नाम आदि का परिचय पाकर कुमुदचन्द्र ने उन्हें चर्चा (शास्त्रार्थ) के लिए आह्वान किया । वृद्धवादी आचार्य ने पूछा- "मध्यस्थ कौन होगा, जो जय-पराजय का निर्णय दे सके ?" कुमुदचन्द्र ने उत्तर दिया- "अजपाल (भेड़-बकरियाँ चराने वाले) ही यहाँ मध्यस्थ होंगे।" शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम विद्वान कुमुदचन्द्र लगभग २०-२५. मिनट तक धाराप्रवाह संस्कृत में बोलते रहे । उनकी बात चरवाहों के कुछ भी पल्ले नहीं पड़ी, अतः उन्होंने उन्हें रोककर वृद्धवादी आचार्य को बोलने के लिए कहा। देश-काल-पात्रज्ञ आचार्य ने एक पद्य चरवाहों की सरल भाषा में सुनाया काली कांबल अरणीसठ्ठ, छाछे भरियो दीवड़ मट्ठ । एवड़ पड़ियो नीले झाड़, अवर किसो है स्वर्ग विचार ॥ अर्थात् जिनके पास ओढ़ने के लिए काला कम्बल है, आग जलाने के लिए १ अकाले विज्ञप्तं ऊषरे कृष्टमिव -नीतिवाक्यामृत ११/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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