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आनन्द प्रवचन : भाग ६
अरणी की लकड़ी है, भूख-प्यास मिटाने के लिए छाछ से भरी दीवड़ी है, और जिनका एबड़ (भेड़-बकरियों का दल) हरे-भरे जंगल में छायादार पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा है, ऐसे अजपाल वस्तुतः स्वर्ग का सा आनन्द ले रहे हैं, क्योंकि इनके लिए इससे बढ़कर स्वर्ग और क्या हो सकता है ?
यह सुनकर सारे अजपाल खुश हो गए और वृद्धवादी आचार्य को विजयी घोषित कर दिया।
सचमुच वृद्धवादी आचार्य की विजय का कारण देश, काल और पात्रादि देखकर अपना वक्तव्य प्रस्तुत करना ही था । इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक ह्वाइटफिल्ड (Whitefield) ने लम्बे अप्रासंगिक भाषणों की ओर तीखा कटाक्ष करते हुए कहा है
"To preach half an hour, a man should be an angel himself or have angels for hearers."
"आधे घंटे से ज्यादा उपदेश देने के लिए मनुष्य को या तो स्वयं फरिश्ता बनना चाहिए या फिर सुनने के लिए श्रोता फरिश्ते रखने चाहिये ।'
उपदेशक को यह भी ध्यान में रखना होगा कि जिसके विषय में वह उपदेश दे रहा है, वह उसके अपने जीवन में भी उतरा है या नहीं ? इसलिए बुद्धिमान महामानवों की राय है कि 'कहो कम, करो ज्यादा' । कहने की अपेक्षा करने का महत्त्व ज्यादा है। सौ बार कहने से एक बार करना सौगुना अच्छा है। जो भी कहना हो, वह अभिमान या पाण्डित्य का प्रदर्शन करने के लिए नहीं, बल्कि श्रोता को उसके हित की, बन्धनमुक्ति की बात आसानी से हृदयंगम कराने के लिए कहने से उपदेशक के प्रति श्रद्धा और आदरभाव बने रहते हैं। तब उसके कहने का भी प्रभाव पड़ता है। श्रोताओं को समझाकर कहने का प्रभाव ___कई बार परामर्शक को अपने श्रोताओं को शुभ कार्य को प्रवृत्त करने तथा उस कार्य को गहरी दिलचस्पी से करने के लिए उस कार्य का महत्त्व, उससे होने वाले सार्वजनिक हित एवं लाभ के पहलू भी समझाने पड़ते हैं। तभी उस परामर्शक की बातों का श्रोताओं पर झटपट असर पड़ता है।
एक बार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू दामोदर घाटी परियोजना में चल रहे कार्य का निरीक्षण करने गये। उन्होंने वहाँ एक जगह मिट्टी ढोते हुए हजारों मजदूरों को देखा । उन्होंने लगभग ३०० मजदूरों को वहीं एकत्रित किया और उनके साथ वे स्वयं भी बैठ गये । फिर नेहरूजी ने उनसे पूछा-"तुम लोग क्या कर रहे हो ?"
मजदूरों का उत्तर था-"हम मिट्टी ढो रहे हैं।" "क्यों ?"
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