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________________ अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३३५ चाहें जितना ही उगल डालें। ऐसे भाषणवीरों को ही दृष्टि में रखकर भगवान महावीर ने कहा था-- - "वायावीरियमेत्तण समासासेंति अप्पयं ।" 'बहुत से लोग वाणी की शूरवीरता मात्र से अपने आप को सन्तुष्ट कर लेते हैं।' ऐसे ही एक रामायण के कथावाचक थे । सम्पूर्ण रामायण सुना चुकने के बाद जब शंका-समाधान का अवसर आया तो चट् से एक श्रोता ने पूछ ही लिया"महाराज ! आप जैसे कथाकार विरले ही होते हैं । कितने सुन्दर ढंग से आपने रामचरित सुनाया। आपने सब को समझाने के लिए बहुत ही सरल शब्दों में विवेचन किया, लेकिन एक शंका मेरे दिमाग को कचोट रही है कि आखिर राम और रावण इन दोनों में राक्षस कौन था ?" यह सुनकर तो कथावाचकजी भौंचक्के-से रह गए। उन्हें क्या पता कि ऐसे भी अयोग्य श्रोता होते हैं । अत : कथावाचकजी अपने को संयत करते हुए बोले"आपकी जिज्ञासा का समाधान तो मेरी समझ में यही आता है कि राम और रावण दोनों में कोई राक्षस न था । राक्षस तो वास्तव में हम और तुम हैं, क्योंकि तुम ठहरे निरे बुद्ध श्रोता और हम बकवादी कथावाचक !" उपदेशक या वक्ता कैसे हों ? वास्तव में ऐसे भाषणरोगी या उदम्भरी कथावाचक श्रोताओं की योग्यताअयोग्यता की परवाह नहीं करते हैं । उन्हें तो अपने पेशे से मतलब है। अथवा ऐसे उपदेशक या वक्ता भी कोई परवाह नहीं करते, जो अपनी वक्तृत्वकला के जादू द्वारा लोगों को रिझाकर या लोगों को प्रभावित करके प्रसिद्ध वक्ता आदि पद, प्रतिष्ठा या वाहवाही प्राप्त करना चाहते हैं। पाश्चात्य विचारक सेल्डन (Seldon) ने इसी बात की ओर संकेत किया है "First, in your sermons, use your logic and then your rhetoric. Rhetoric without logic is like a tree with leaves and blossoms, but not root." "ऐ उपदेशको ! आप अपने उपदेशों में सर्वप्रथम युक्ति और तर्क का प्रयोग करें, तदनन्तर अपनी भाषण कला दिखाएँ । बिना तर्क की भाषणकला ऐसी ही होगी जैसे बिना जड़ के केवल पत्तों और फूलों से लदा वृक्ष !' सूत्रकृतांगसूत्र में धर्मोपदेशक की योग्यता के विषय में कहा गया है आयगुत्ते सयादंते छिन्नसोए अणासवे । ते धम्मं सुद्धमाइखेति पडिपुण्णमणेलिसं ॥ "जो प्रतिक्षण अपनी आत्मा की रक्षा (पापों एवं बुराइयों से) करते हैं, सदा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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