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आनन्द प्रवचन : भाग ६
उपनिषद् भी अपने नाम को सार्थक करते थे। वे भी योग्य व्यक्तियों को एकान्त में ही सुनाये-समझाये जाते थे । राजस्थान के महाकवि बिहारी ने तीन दोहों में अन्योक्ति द्वारा इस बात को भलीभाँति समझाया है
कर लै लँघि सराहि के, सबै रहे गहि मौन ।
गंधी अंध गुलाब को, गंवई गाहक कौन ? एक गंधी गुलाब का इत्र लेकर एक गाँव में पहुँचा। वहाँ उसे एक बुद्धिमान मनुष्य मिला, उसने गंधी से कहा- "अरे भाई ! यहाँ गाँव में तेरे गुलाब के इत्र का ग्राहक कौन होगा ? यहाँ तो तेरे इत्र को सूघ लेंगे, कुछ मुफ्त में लगाकर उसकी सराहना कर देंगे । पर खरीदने के मामले में सब चुप हो जाएंगे।"
अरे हंस या नगर में, जैयो आप विचारि। कागनि सौ जिन प्रीति करि, कोयल दई बिडारि ॥
एक हंस एक नगर में जाने की तैयारी कर रहा था, तभी एक कवि ने उससे कहा-"अरे हंस ! इस नगर में तुम सोच-समझकर जाना, क्योंकि यहाँ के लोग गुणग्राहक नहीं हैं। उन्होंने मधुरभाषिणी कोयल को तो मार भगाया है और कर्कशभाषिणी कोब्वी से प्रीति कर रहे हैं।"
चले जाहु ह्याँ को करत, हाथिन को व्यौपार ।
नहिं जानत या पुर बसत, धोबी ओड कुम्हार ॥
हाथी के व्यापारी से एक चतुर ने कहा- "भाई इस नगर से चले जाओ। यहाँ हाथी का व्यापार करना कोई नहीं जानता। इस नगर में तो धोबी, ओड और कुम्हार बसते हैं।"
कितनी मार्मिक बात कह दी है कवि ने ! उपदेशक या वक्ता को इन अन्योक्तियों से महती प्रेरणा मिलती है कि वे अपना बहुमूल्य तत्त्वज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान या परमार्थ का बोध चाहे जिसके सामने न बघारें, योग्यता और पात्रता देखकर ही वे अपनी ज्ञाननिधि दूसरों को दें।
___कभी-कभी ऐसे अयोग्य श्रोताओं को कथा सुनाने से वे कुछ का कुछ समझ बैठते हैं। पूरा अर्थ उनके दिमाग में नहीं आता, वे वक्ता को भी बदनाम कर बैठते हैं।
कहते हैं एक बार धर्मग्रन्थों के बड़े-बड़े गट्ठरों को देखकर भगवान ने निःस्वास फेंकते हुए कहा-"हाय! मेरा उपदेश भूखों और बीमारों के काम न आया । काम तो उनके आ रहा है, जिनका पेशा ही उपदेश देना हो गया है। जिनकी आजीविका ही उपदेशों के आधार पर चलती है। कुछ वक्ता तो इतने भाषण-रोगी हो गये हैं कि वे वाणी की सार्थकता इसी में मानते हैं कि बेभान होकर श्रोता के आगे
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