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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर ३०३ "The virtues are lost in self interest as rivers are in the sea." 'स्वार्थ में सभी सद्गुण उसी तरह खो जाते हैं, जैसे नदियाँ समुद्र में खो जाती हैं।' लोभ, लोलुपता एवं परपीड़न की भावना से प्रेरित प्रवृत्तियाँ ही स्वार्थ हैं, जिनकी विचारकों और मनीषियों ने निन्दा की है, संतों ने उसका निषेध किया है। ऐसा संकीर्ण व्यक्ति मानवधर्म की भी उपेक्षा करने लगता है। ऐसा करके वह संसार का तो उपकार करता ही है, खुद अपना पतन भी कर लेता है। संकीर्ण भौतिक एवं निकृष्ट स्वार्थ मिथ्यास्वार्थ माना जाता है। ऐसा निकृष्ट स्वार्थ समस्त पापों और बुराइयों का मूल स्रोत होता है। एक पाश्चात्य लेखक इम्मन्स (Emmons) ने तो यहां तक कह दिया है "Selfishness is the root and source of all natural and moral evils." 'स्वार्थपरता तमाम नैसर्गिक और नैतिक बुराइयों की जड़ और स्रोत है।' चूंकि मिथ्या स्वार्थ मनुष्य को वासनाओं और तृष्णाओं से ग्रसित कर कुकर्म करने को विवश करता है। ऐसा स्वार्थी व्यक्ति किसी तात्कालिक लाभ को भले ही प्राप्त कर ले, पर अन्त में उसे लोकनिन्दा, अविश्वास, असन्तोष, विरोध, विक्षोभ, आत्मग्लानि और अशान्ति आदि के कष्टदायक, मानसिक एवं शारीरिक नरक में पड़ना पड़ता है। इन्हीं कारणों से ऐसे नारकीय, निकृष्ट एवं मिथ्या स्वार्थी जीवन को मनीषियों ने निन्दित एवं हेय बताया है। स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ में अधिक लाभ यों देखा जाए तो स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है। स्वार्थ उसे कहते हैं, जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो, पर आत्मा की उपेक्षा करता हो । चूंकि हम आत्मा हैं, शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है, इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचाकर उसके स्वामी (आत्मा) को दुःख में डालना मूर्खतापूर्ण कार्य कहा जाएगा। इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान मुख्यरूप से रखा जाता है । आत्मा का उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार से सुखी रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप आती रहती हैं। केवल अनावश्यक विलासिता एवं सुख सुविधाओं पर अंकुश रखना पड़ता है। फिर भी यदि कभी ऐसा अवसर आ जाये तो शारीरिक कष्ट सहकर भी आत्मा को परमार्थ का पुण्यलाभ देना बुद्धिमत्ता है। परमार्थसुख श्रेष्ठ है या स्वार्थसुख ? सांसारिक भोगों का उपभोग करने और मनभाती परिस्थितियां पा लेने से शारीरिक सुख मिलता है लेकिन आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं परमार्थ कार्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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