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________________ ३०४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ से। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिए स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्त्व देते हैं। वे परमार्थसुख के लिए स्वार्थसुख का भी त्याग कर देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि शारीरिक सुख तो क्षणिक और छायावत् है जबकि आत्मिक सुख सत्य, शाश्वत और यथार्थ हैं। . स्वार्थ का संक्लेशपूर्ण मार्ग त्याग देने से परमार्थ का भाव स्वतः आ जाता है। परमार्थपूर्ण जीवन स्वर्गीय सुखशान्ति का भण्डार है। परोपकार, परमार्थ या परसेवा ही परमार्थ का सक्रिय रूप है। ____ आप जानते हैं, सेवा आदि परमार्थसाधना का प्रतिफल क्या है ? यद्यपि सेवा आदि परमार्थ कार्य भी निःस्वार्थ, निष्कांक्ष एवं निर्द्वन्द्व होकर किये जाते हैं, फिर भी उस परमार्थ कार्य का प्रतिफल आत्मसन्तोष, आत्मबोध, आत्मप्रसन्नता या आत्मसुख के रूप में शीघ्र मिलता ही है । सेवा आदि परमार्थ के द्वारा दूसरे को सुखी बनाने में जो आत्मसन्तोष प्राप्त होता है, उसकी तुलना में शारीरिक सुख नगण्य एवं तुच्छ है। परमार्थी व्यक्ति बाहर से भले ही साधारण स्थिति का दिखाई दे, वह जोरजोर से हँसता, खिलखिलाता भले ही दृष्टिगोचर न हो, तथापि उसका अन्तःकरण परिपूर्ण तृप्त बना रहता है। उसमें एक अहेतुक, सम्पन्नता, गरिमा और गौरव की अनुभूति रहती है । परमार्थी की स्वयं की आत्मा ही सन्तुष्ट नहीं रहती, बल्कि उसके सम्पर्क में आने वाला हर व्यक्ति सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता है, जिससे आत्मा का आनन्द बढ़ जाता है, सभी लोग उससे प्यार करते हैं, श्रद्धा के फूल बरसाते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। इसलिए परमार्थी जीवन घाटे का सौदा नहीं है। . परमार्थबुद्धि रखने वाले व्यक्ति का सामाजिक और पारिवारिक जीवन भी बड़ा सुखी और सन्तुष्ट रहता है । स्वार्थी दृष्टिकोण के परिवारों में सब अपने-अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं, अपने लिए अधिक से अधिक वस्तुएँ चाहते हैं, जबकि परमार्थी दृष्टिकोण के परिवारों में, सर्वप्रथम अपना स्वार्थ त्याग करके अधिकारों को कर्तव्य में समाविष्ट कर लेते हैं । सबके प्रति समान प्रेम, यथोचित आदर एवं संविभाग होता है। ऐसे परिवार में न्याय, निःस्वार्थता और स्नेह की त्रिवेणी बहती है। जिससे किसी भी सदस्य का मन अवांछनीय ताप या स्वार्थत्याग की गर्मी से व्याकुल नहीं होता। एक बार जिसने अस्वार्थ का सुखानुभाव कर लिया फिर उसे स्वार्थसिद्धि में कभी आनन्द नहीं आएगा। स्वार्थ-परता का दंड कभी-कभी मनुष्य को स्वार्थपरता का स्वतः दण्ड मिल जाता है। या तो जगत में उसकी स्वार्थपरता की निन्दा होती है, या फिर उससे कोई प्यार नहीं करता, कोई उसे आदर-सत्कार नहीं देता, वह जीवनभर अलग-थलग रहकर अकेलेपन का कष्ट उठाता है। उसका कोई हमदर्द नहीं रहता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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