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३०२ आनन्द प्रवचन : भाग ६
निकला काम बदल गये साथी, तोताचश्म हुए सब नाती। स्वारथ के हैं पोता-पोती, कहते शास्त्र पुकार ॥दुनिया॥ यह दुनिया की झूठी यारी, स्वारथ के सब बने पुजारी।
विपद पड़े सर पर जब भारी, दूर रहे परिवार ॥दुनिया॥ मूढ स्वार्थी अपनी ही अधिक हानि करते हैं
इस प्रकार के स्वार्थी मनुष्य यह सोच लेते हैं, कि इस प्रकार से स्वार्थ साधकर हम आत्मसन्तोष और आत्मसुख पा लेंगे। परन्तु आप यह प्रतिदिन के अनुभव से समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे के स्वार्थ का हनन करके क्या सुख, सन्तोष और शान्ति प्राप्त कर सकता है ? दूसरों को हानि या कष्ट पहुँचाकर कितने ही बड़े स्वार्थ की सिद्धि क्यों न कर ले, उससे उसे शान्ति नहीं मिल सकेगी। सर्वप्रथम तो जिसे कष्ट हुआ है, वह प्रतिक्रियास्वरूप उसे शान्ति से न बैठने देगा, दूसरे शासन, समाज एवं लोकनिन्दा का भय बना रहेगा, तीसरे उसकी स्वयं की आत्मा उसे कचोटती रहेगी। वह प्रतिक्षण टोकती रहेगी कि तुमने अमुक व्यक्ति को कष्ट पहुँचाकर, अमुक उपकारी को धोखा देकर, या संकट के समय पीड़ित होने देकर जो स्वार्थसिद्धि की है, वह उचित नहीं, इसके लिए तुम्हें इस लोक या परलोक में कभी न कभी अवश्य दण्ड मिलेगा । ऐसी स्थिति में स्वार्थसिद्धि सुखदायक तो नहीं बल्कि अधिकतर त्रासदायक ही बनेगी, तब कहाँ स्वार्थ का प्रयोजन पूरा हुआ और परमार्थ का उद्देश्य तो पूर्ण होता ही कैसे ?
इसलिए मैं तो कहूँगा कि अपने उपकारी को दुःखसागर में डूबने देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना कथमपि हितावह नहीं हो सकता। ऐसा स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुःखमयी जीवन है। पाश्चात्य लेखक इमर्सन (Emerson) ने यही बात कही है
"The selfish man suffers more from his selfishness than he from whom that selfishness withholds some important benefit.”
'स्वार्थी मनुष्य जिस सनुष्य से अपने किसा खास लाभ के लिए स्वार्थ साधना चाहता है, उसकी अपेक्षा उसे अपने स्वार्थ से ज्यादा कष्ट सहना पड़ता है।'
वास्तव में देखा जाए तो स्वार्थपूर्ण जीवन नारकीय जीवन है। स्वार्थपरता के कारण मनुष्य चोर, बेईमान, कपटी, धोखेबाज, हत्यारा और दुष्ट बन जाता है । संसार में संघर्ष, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, लालसा आदि समस्त दोषों का मूल कारण स्वार्थ ही है। स्वार्थी मनुष्य केवल अपने ही लाभ की बात सोचता है। दूसरे का चाहे जितना नुकसान हो, दूसरे उसके कारण चाहे जितने संकट में पड़ें, इसकी परवाह नहीं करता । ऐसा स्वार्थी मनुष्य अपने सब सद्गुणों को धीरे-धीरे खो बैठता है । एक पाश्चात्य विचारक रोचीफाउकोल्ड (Rouchefoucould) ने सच ही कहा
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