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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २६६ उसके गले में अटकी हड्डी निकालने के उपकार की बात कही तो सिंह गर्जता हुआ बोला - " मूर्ख ! क्यों व्यर्थ उपकार की डींगें हांक रहा है ? मेरा उपकार क्या कम था कि मैंने तुझे अपने मुँह से जीवित जाने दिया । " इस पर कठफोड़ा अफसोस कर ही रहा था कि पास में बैठे किसी पक्षी ने कहा – “भोले पक्षी ! उपकार की छाप हृदय वालों पर ही पड़ सकती है, इन हृदयहीनों एवं हिंसकों पर नहीं ।' स्वार्थी मित्र का यही लक्षण है कि समय आने पर आँखें फिरा लेता है । एक कवि ने ठीक ही कहा है सुख अनु में संग मिलि सुख करै, दुःख में पाछे होय । निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय ॥ स्वार्थी दोषान्न पश्यति ( स्वार्थी दोषों को नहीं देखता ), इस कहावत सार स्वार्थी व्यक्ति में दूसरों के स्वार्थ को क्षति पहुँचाने से जीवन में क्या-क्या दोष उत्पन्न हो जाते हैं ? इसका विचार नहीं करता । वे पंच जो पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं, वे इस तुच्छ स्वार्थ के शिकार बनकर अपने प्रति जनता का विश्वास खो बैठते हैं । पंच ही क्यों, जो भी व्यक्ति अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए दूसरे का बड़े से बड़ा अहित करते नहीं हिचकिचाते, वे मानवशरीर में विचरण करने वाले नरपशु हैं । असुर, पशु या पिशाच इसी ढंग से सोचते हैं । उद्दण्डता और अनीति का आचरण करते हुए उन्हें लज्जा नहीं आती । मनुष्य शरीर मिलने के बावजूद भी ऐसे लोगों को मानवीय अन्त:करण नहीं मिला । ऐसे अतिस्वार्थी मनुष्यों का यह नारा रहता है कि जो कुछ खाएँ, हम खाएँ, दूसरों का भोजन छीनकर भी हम भोजन कर लें । जो कुछ अच्छा हो, हम पहनें । दूसरों को मिले या न मिले, इसकी उन्हें परवाह नहीं होती । मगध सम्राट बिम्बसार श्रेणिक का पुत्र कूणिक प्रारम्भ से ही उद्दण्ड, स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी और अहंकारी था। जब वह रानी चेलना के गर्भ में आया, तब चेलना को अपने पति श्रेणिक के कलेजे का मांस खाने को दोहद उत्पन्न हुआ । चेलना ने इस पुत्र के अशुभ होने के चिन्ह जानकर कूणिक को जन्मते ही कूरड़ी पर फिंकवा दिया था । मगर श्रेणिक के पितृहृदय ने सदा कूणिक को प्यार किया और रक्षा भी । श्रेणिक ने चेलना को कूणिक की रक्षा के लिए विशेष हिदायतें भी दी थीं । परन्तु गुलाबी बचपन से निकलकर ज्यों ही कूणिक ने अपने महकते यौवन में प्रवेश किया, उसकी राज्यलिप्सा जाग उठी । उसने पिता से धृष्टतापूर्वक कहा - " आप वृद्ध हो गए हैं, फिर भी राज्य लोभ नहीं छूटा । मैं कब राज्य करूंगा ? मेरा यौवन तीव्रगति से बीता जा रहा है ।" उसने कालकुमार आदि अपने १० भाइयों को अपने अनुकूल नाकर विद्रोह कर दिया और राज्य सिंहासन पर अधिकार जमा लिया । साथ ही अपने उपकारी पिता श्रेणिक को जेल के सींखचों में बन्द कर दिया । उसने किसी को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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