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________________ ३०० आनन्द प्रवचन : भाग ६ भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी। अपनी माता को भी उसके अत्यन्त अनुरोध पर दिन में सिर्फ एक बार मिलने की अनुमति दी।। कूणिक जब एक बार मातृवन्दन करने आया तो माता को उदास और खिन्न देखकर उदासी का कारण पूछा। चेलना ने पिता के द्वारा कणिक पर किये गये उपकारों का अथ से इति तक वर्णन किया। इस पर कूणिक के हृदय में पितृप्रेम जाग उठा । वह अपने पिता को बन्धन-मुक्त करने पहुँचा, परन्तु राजा श्रेणिक ने कणिक के पहुँचने से पूर्व ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी थी। कुणिक का हृदय शोक संतप्त हो उठा । पर अब क्या हो सकता था? कूणिक की यह कहानी उस मूढ़ स्वार्थी पाषाणहृदय की कहानी है, जिसने अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए पिता के प्रति घातक कहर बरसा दिया था। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक मूढ स्वार्थियों की कहानियाँ अंकित हैं। आपको मैंने एक दिन उन चार अतिस्वार्थी ब्राह्मणों की कहानी सुनाई थी, जिन्होंने यजमान से गाय पाकर अपनी-अपनी बारी पर उसका दूध तो दुह लिया, मगर उसे चारा-दाना बिलकुल न खिलाया, न ही समय पर पानी पिलाया एवं सेवा ही की; परिणाम यह हुआ कि बेचारी गाय तड़प-तड़प कर मर गई । ___ इस अतिस्वार्थ के परिणामस्वरूप मनुष्य मनुष्य होकर भी मनुष्यता का व्यवहार नहीं करता । वह इस मूढ़ स्वार्थ के कारण नर-पिशाच बन जाता है । अब एक चौथी कोटि का घृणित, निन्द्य और मूढ़ स्वार्थी व्यक्ति रह गया । यह तो सबसे अधम और निकृष्ट है ! तीसरी कोटि का व्यक्ति तो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों के स्वार्थों का सफाया करता है, पर यह मनुष्य-राक्षस अपने किसी भी स्वार्थ के बिना ही दूसरों के स्वार्थ का विघटन कर देता है। यह प्रवृत्ति अत्यन्त मूर्खतापूर्ण और अवांछनीय है । एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट कर दूं पुराने जमाने की बात है । एक लोभी और एक ईर्ष्यालु देवी के मन्दिर में गए। दोनों ने भक्तिपूर्वक देवी की आराधना की। अतः देवी प्रसन्न होकर बोली"तुम यथेष्ट वर माँग लो, पर शर्त यह है कि पहले जो मांगेगा, उसकी अपेक्षा बाद में मांगने वाले को दुगुना मिलेगा।" दोनों एक दूसरे से पहले माँगने का आग्रह करने लगे । लोभी दूने धन का लोभ कैसे संवरण कर सकता था, और ईर्ष्यालु अपने साथी के पास दुगुना धन हो जाए, यह कैसे सहन कर लेता ? फलतः दोनों अपने-अपने आग्रह पर अड़े रहे। काफी समय बीत गया, कोई भी पहले माँगने को तैयार न हुआ। आखिर ईर्ष्यालु उत्तेजित होकर बोला-"माँ ! यह बड़ा लोभी हैं। इसलिए कदापि पहले माँगने का प्रयत्न नहीं करेगा । अतः मैं ही पहल करता हूँ।" देवी ने कहा"अच्छा तुम मांगो।" ईर्ष्यालु बोला- "माँ ! मेरी एक आँख फोड़ डालो।" देवी ने तथास्तु कहते ही ईर्ष्यालु काना हो गया । लोभी ने घबराकर देवी से प्रार्थना की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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