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________________ २९६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ के संकीर्ण एवं तुच्छ स्वार्थी मनोवृत्ति का परिचायक है । डाक्टरों की इसी संकीर्ण स्वार्थी मनोवृत्ति को एक साधक इन शब्दों में व्यक्त करते हैं डाग देके गया टर, अपनी फीस पाकेट में धर। तू जी चाहे मर, हम तो चले अपने घर। उसको कहते डाक्टर ॥ भावार्थ स्पष्ट है । आप सब जानते हैं कि ऐसे स्वार्थी डाक्टर, जो केवल इंजेक्शन देकर या केवल रोगी को देखकर टरक जाते हैं, रोगी की फिर कोई सुध नहीं लेते, जिन्हें केवल अपनी फीस मिलने के स्वार्थ से वास्ता है, वे हृदयहीन डाक्टर कैसे परमार्थ-पथ की उदात्त पगडंडियां पकड़ सकते हैं ? ___यही बात वकील के व्यवसाय के सम्बन्ध में समझिए । अगर वकील अपने मुवक्किल से रुपये ऐंठने के लिए ही उसका मुकदमा लेता है। और कोई राष्ट्र एवं समाज के हित की बात उसके दिल-दिमाग में नहीं है तो वह भी एक नम्बर का स्वार्थी वकील है। वह भी परमार्थ के मार्ग से अभी कोसों पूर है। - नौकरी के विषय में भी यही बात है कि नौकरी चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, उसके साथ जब तक संकीर्ण स्वार्थ का भाव रहेगा, तब तक वह नौकर स्वार्थी नौकर ही कहलाएगा, क्योंकि उस नौकर की दृष्टि केवल वेतन मिलने पर है, मालिक का कार्य पूरी वफादारी, सचाई और प्रामाणिकता के साथ सम्पन्न करूँ, जिम्मेवारी का कार्य करने में जी न चुराऊँ, पूरे समय तक व्यवस्थित एवं शुद्ध ढंग से कार्य करू, जिससे मेरे मालिक के लाभ के साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी लाभ हो, उनकी समृद्धि बढ़े। मालिक की सेवा के साथ-साथ यह समाज एवं राष्ट्र की भी सेवा है। इस प्रकार संकीर्ण, हीन एवं निम्न स्वार्थभावों को छोड़कर, या केवल अपने वेतन की प्राप्ति का संकीर्ण दृष्टिकोण छोड़कर ज्यों ही नौकरी करने वाला इन उच्च भावों को अपनाता है, त्यों ही दीनता-हीनता के भाव या संकीर्ण स्वार्थभाव पलायित हो जाएँगे और उसका वह स्वार्थपरक कार्य भी परमार्थपरक बनकर अधिकाधिक संतोष, सुख-शान्ति और उत्साह देने वाला बन जाएगा। इन दो कोटि के व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का विश्लेषण मैंने आपके समक्ष किया। इनमें से प्रथम परमस्वार्थी-परमार्थी है, दूसरा है-स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ को साधने वाला । अब दो कोटि के व्यक्ति और रहे । एक है-दूसरे के स्वार्थ का विघटन करके अपना स्वार्थ साधने वाला और दूसरा है-दूसरों के स्वार्थ का विघटन करने के लिए अपने स्वार्थ का भी विघटन करने वाला। इन दो कोटि के व्यक्तियों के स्वार्थ की मर्यादाओं का विश्लेषण करने से पहले मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं। आज लोकव्यवहार में यह बात प्रचलित है कि एक दूकानदार अपने ग्राहकों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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