SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २६५ परन्तु व्यवसाय के साथ ऐसी उच्च भावना के जुड़ते ही उस व्यवसायी को अपने व्यवसाय में मुनाफाखोरी, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, तस्कर व्यापार तथा मिलावट, बेईमानी, जालसाजी, धोखेबाजी, शोषण आदि प्रवृत्तियों पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। ज्यों-ज्यों व्यवसायी अपने व्यवसायक्षेत्र में निष्कलंक व्यवसाय का सुन्दर रूप प्रस्तुत करता जाएगा, त्यों-त्यों वह अपने व्यावसायिक क्षेत्र में उन्नत बनता जाएगा, उसका भय, आशंका और संशय दूर होता चला जाएगा और आत्मिक सुख भी मिलेगा, बशर्ते कि वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र में या अन्य परिवारादि के साथ, या अन्य व्यवसायियों के प्रति संकीर्ण स्वार्थसिद्धि से बिलकुल दूर रहे। इस प्रकार उसका संकीर्ण स्वार्थ परमार्थ रूप बनता जाएगा। व्यवसाय-क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले संकीर्ण स्वार्थ को मैं एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर दूं। एक था माली और एक था कुम्हार । दोनों दो प्रकार के व्यवसायी होते हुए भी उनमें मैत्री हो गई थी। उनकी मैत्री का आधार कोई उदात्तभाव नहीं था, न हार्दिक था, केवल स्वार्थों का समझौता था। एक दिन वे दोनों अपने गाँव से शहर में अपना-अपना माल बेचने जा रहे थे। दोनों के पास एक ऊँट था, जिस पर माली की साग-सब्जी और कुम्हार के घड़े लदे हुए थे । माली के हाथ में नकेल थी, जिसे पकड़े वह आगे-आगे चल रहा था, और कुम्हार ऊँट के पीछे-पीछे चल रहा था। रास्ते में ऊँट पीछे मुड़कर माली की साग-सब्जी खाने लगा। कुम्हार ने इसे देखा मगर यह सोचकर कि इसमें मेरा क्या बिगड़ता है, कुछ बोला नहीं। माली ने पीछे मुड़कर देखा नहीं, इस कारण ऊँट बार-बार सब्जी खाने लगा। घड़ों के चारों ओर सब्जी बँधी हुई थी। सब्जी का भार कम होते ही संतुलन बिगड़ गया। सब घड़े नीचे गिर पड़े और फूट गये। कुम्हार ने अपने स्वार्थ के लिए माली के स्वार्थ की उपेक्षा की, फलतः माली के स्वार्थ नष्ट होने के साथ-साथ कुम्हार का स्वार्थ भी नष्ट हो गया। इस प्रकार जहाँ एक व्यवसायी दूसरे के स्वार्थों की उपेक्षा कर देता है, केवल अपना ही स्वार्थ देखता है, वहाँ उसकी भावना चाहे जितनी उदात्त हो, वह परमार्थ नहीं, संकुचित स्वार्थ ही कहलाएगा। डाक्टर और वकील के व्यवसाय स्वार्थ के मामले में आज बहुत आगे बढ़े हुए हैं। प्रायः डाक्टरों के विषय में यह शिकायत सुनी जाती है कि वे इतने हृदयहीन एवं संकीर्ण स्वार्थ से ओतप्रोत होते हैं कि रोगी चाहे मरण-शय्या पर पड़ा हो, अत्यन्त लाचार हो, निर्धन हो, अथवा घर में कोई भी कमाने वाला न हो, फिर भी उन्हें अपनी फीस से मतलब रहता है । रोगी स्वस्थ हो या अस्वस्थ रहे इससे उन्हें प्रायः कोई मतलब नहीं। कई दफा तो निर्धन एवं असमर्थ रोगियों को देखने वे जाते ही नहीं, इन्कार कर देते हैं, समय नहीं है—का बहाना बना लेते हैं । यह ऐसे चिकित्सकों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy