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________________ २९४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ को नैतिक प्रेरणाएँ देना, अथवा विविध उद्योग-धंधे करना भी मूलतः स्वार्थ है। परन्तु यदि इसके साथ उच्च भावनाओं का समावेश कर दिया जाए तो इसी स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी लाभ मिल सकता है। जैसे एक किसान खेती करता है, वह सोचता है कि इससे जो उपज होगी, उससे अपना और परिवार का गुजारा चलेगा, जीवन की अन्य आवश्यक सामग्री की प्राप्त हो जाएगी। साथ ही अगर वह इस प्रकार भी सोचता है कि खेती करना मेरा पुनीत कर्तव्य है, इससे राष्ट्र, समाज एवं प्राणियों को अन्न मिलेगा, मेरे परिवार के गुजारे से बचा हुआ अन्न मैं समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए उचित मूल्य पर दे सकूँगा, इससे मुझे जो लाभ होगा, उससे मैं संसार के एक अंश-परिवार का पालन करूँगा, बच्चों को पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बना सकूँगा, जिससे वे समाज और राष्ट्र का कुछ हित कर सकें तथा अपनी आत्मा का उद्धार कर सकें। ऐसी उदार भावना जागते ही किसान का अपनी खेती का मूल स्वार्थ परमार्थ में परिणत हो सकेगा, बशर्ते कि वह किसान किसी अन्य व्यवसाय वाले के हित को नष्ट न करे, उसकी दृष्टि केवल अनाज के ऊँचे दाम मिलने पर न हो, वह जनता को ठगने की दृष्टि से अपनी कृषि से उत्पन्न वस्तु में मिलावट न करे, सरकार या जनता के साथ धोखेबाजी न करे, परिवार में भी किसी के या अन्य परिवार, समाज या राष्ट्र के हित की उपेक्षा करके सिर्फ अपने या अपने परिवार के हित को ही सर्वोपरि प्रधानता न दे । परन्तु एक बात निश्चित है कि ऐसे परमार्थभावयुक्त स्वार्थ से खेती करने वाले कृषक को उसका आनन्द उसकी अपेक्षा स्थायी उदात्त और अधिक प्राप्त होगा, जो उसे संकीर्ण स्वार्थ रखने पर होता। विचारों की व्यापकता, उदात्तता और उच्चता ही मनुष्य के कार्यों को उच्च बना देती है। खेती जैसे कार्य में भी परहित की परमार्थ भावना का समावेश हो जाये तो मनुष्य स्वार्थ के साथसाथ परमार्थ का पुण्य भी उपार्जन कर सकता है, जो उसे सन्तोष, आनन्द एवं सुख शान्ति का लाभ देगा। . इसी प्रकार व्यवसाय की बात है। व्यापार के अतिरिक्त डाक्टरी, वैद्यक, वकालत आदि भी एक प्रकार के व्यवसाय हैं। अन्य कोई भी शिल्प, कला, हुनर आदि करके पैसा कमाना भी व्यवसाय है। व्यवसाय का उद्देश्य अपने पारिश्रमिक या उचित लाभ और उससे अपने व परिवार के पालन-पोषण एवं संस्कार प्रदान के अतिरिक्त यह उदात्त एवं उच्च भाव भी हो कि मेरे इस व्यवसाय से जनता की आवश्यकता पूर्ति हो, समाज तथा राष्ट्र की सेवा हो, जिन लोगों को जो वस्तुएँ या सेवाएँ जहाँ उपलब्ध न हों, उन लोगों को वहाँ उन वस्तुओं या सेवाओं को उपलब्ध करूँ, लोगों के कष्ट दूर हों, राष्ट्र और समाज में सम्पत्ति-समृद्धि बढ़े, बहुत-से आदमियों को काम मिले । व्यक्तिगत व्यवसाय को इस प्रकार सार्वजनिक सेवाकार्य मानकर चलने पर स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ भी सिद्ध हो जाएगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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