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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २६३ अच्छा है, वही दूसरे को अच्छा बना सकता है। अतः आत्मोद्धार, आत्महित या आत्मविकास को जो स्वार्थ मानते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि सदाशयतापूर्ण स्वार्थ भी परमार्थ ही होता है। अपनी आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होगा, उन्हीं के माध्यम से संसार का हित साधन होगा। जिन गुणों एवं उपायों से साधु-संन्यासी आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष एवं आत्मकल्याण प्राप्त करते हैं, उन्हीं गुणों और उपायों के विषय में वे दूसरों को बताएँगे। ऐसा उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ का ही एक रूप माना गया है। अत: साधु-सन्तों द्वारा किये जाने वाले आत्मोद्धार को स्वार्थ मानना उचित नहीं। . हाँ, ऐसे साधु-संत, जो परमार्थपथ का अवलम्बन लेकर संसार से धन बटोरते हैं, अपनी पूजा-प्रतिष्ठा करवाते हैं, लोगों को भांग, गांजा, अफीम, शराब या अन्य कुव्यसनों या बुराइयों के चक्कर में डालकर गुमराह करते हैं, अपने इन्द्रियविषयों का आसक्तिपूर्वक पोषण करते हैं, मौज-शौक करते हैं, वे परमार्थी नहीं, अतिस्वार्थी हैं; अथवा वे लोग जो समाज से आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, मकान, पुस्तक तथा अन्य साधु के योग्य कल्पनीय सामग्री या सुविधाएँ तो लेते रहते हैं, परन्तु देने के नाम पर समाज से किनाराकसी कर लेते हैं, उपदेश, प्रेरणा या मार्गदर्शन देने से इन्कार करते हैं, अथवा समाज को या किसी व्यक्ति को गुमराह होते या उत्पथ पर जाते देखकर भी आँख मिचौनी करते हैं, वे भी एक अर्थ में स्वार्थी हैं। उनकी दृष्टि केवल अपनी ही सुख-सुविधा पर है। हाँ, वे समाज से अपनी उचित सुखसुविधा लेना छोड़ दें, जिनकल्पी साधना करने लगें, तब तो वे परमार्थी कहे जा सकते हैं। . ___ आइए, इससे एक कदम और आगे बढ़िए। एक दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य का सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही माना जाता है। जो कार्य जितना उदात्त, उज्ज्वल और उच्च या विशाल स्वार्थ को लेकर किया जाता है, उसका अन्तर्भाव भी एक प्रकार से परमार्थ में ही हो जाता है । प्रश्न हो सकता है, ऐसा स्वार्थ, जिससे अपना, अपने परिवार आदि का भी हित सधे और समाज, राष्ट्र एवं विश्व का भी, क्या उससे परमार्थ भी साधा जा सकता है ? भारतीय संस्कृति के तेजस्वी विचारकों ने इस पर बहुत गहराई के साथ विचार किया है और उनका यह दावा है कि चारों वर्गों के जो-जो कर्तव्य-कर्म नियत हैं, उन्हें अगर वे समग्र समाज, राष्ट्र एवं विश्व के हित की दृष्टि से करते हैं तो स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ भी साधा जा सकता है। परन्तु जहाँ एक व्यक्ति का 'स्व' दूसरे व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र से टकराए, दूसरे को छिन्न-भिन्न करके या दूसरे का अहित या नुकसान करके व्यक्ति अपने स्व को पनपाना चाहे, अपना मनोरथ सिद्ध करना चाहे, वहाँ निपट संकुचित एवं मूढ़ स्वार्थ होता है, वहाँ परमार्थ की वृत्ति जरा भी नहीं होती। यों तो देखा जाए तो खेती, व्यवसाय, नौकरी करना, शासन चलाना, समाज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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