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________________ २७० आनन्द प्रवचन : भाग ६ आवश्यकताओं का औचित्य : यतना का मूल स्वर शरीर, मन और इन्द्रियों की आवश्यकताओं का औचित्य या आवश्यकताओ के विषय में सावधानी बरतना ही यतना का मूल स्वर है । सर्वप्रथम हम शरीर और इन्द्रियों को ही ले लें। ये हमारे सेवक हैं, इसलिए इनकी उचित आवश्यकताओं पर विचार करना ही होगा। परन्तु इनकी आवश्यकताओं के औचित्य-अनौचित्य का विवेक हम यतना के माध्यम से ही कर सकेंगे। आज तो आवश्यकताओं का बाजार गर्म है । परन्तु अगर हम जीवन-निर्वाह के लिए कायिक आवश्यकताओं पर भलीभांति विचार करें तो हमें लगेगा कि बहुत ही अल्प वस्तुओं से हमारा जीवननिर्वाह हो सकता है। मगर वर्तमान युग में यह बात तुच्छ-सी जान पड़ती है। आज तो जहाँ देखो वहाँ आवश्यकताओं की वृद्धि पर अधिक जोर दिया जाता है । आवश्यकताओं की वृद्धि से जीवन समृद्ध और उच्चस्तरीय तथा आवश्यकताओं की कमी से जीवन सिमटा हुआ, दरिद्र एवं निम्नस्तरीय माना जाता है । विद्यार्थी जीवन से ही यह पाठ पढ़ा जाता है "Necessity is the mother of invention." "आवश्यकता आविष्कार की जननी है।" ऐसे लोग मानते हैं कि आवश्यकताओं की जितनी वृद्धि होगी, उतनी ही आर्थिक समृद्धि, सभ्यता की सृष्टि और संस्कृति की उन्नति होती है । भौतिक दृष्टि से इन बातों में कुछ तथ्य होगा, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से इस पर जब गहराई से विचार और अनुभव करते हैं तो एक तथ्य सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट सामने आ जाता है, कि आवश्यकताएँ जितनी ही बढ़ती हैं, मनुष्य भौतिकता का उतना ही अधिक गुलाम और परतंत्र होता जाता है । फिर वह उन आवश्यकताओं को उचित ठहराने लगता है और उनके बिना रह नहीं सकता । आवश्यकता की वृद्धि से समृद्धि के साथ-साथ जो अनिष्ट उत्पन्न होते हैं वे आज प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं । आवश्यकताओं का विस्तार ऐसा दानव है, जो भौतिक समृद्धि के ठीकरे मानव को देकर उसकी नैतिकता, सुख-शान्ति, प्रेम, आदर्श और आत्मवैभव आदि को खा जाता है। विपुल आवश्यकताओं का धनी अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है, वह परतंत्र और दुःखी हो जाता है। यों देखा जाए तो मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ चाहे जितनी बढ़ा ले, प्रकृति की ओर से तो जितनी आवश्यकताएँ नियत हैं, प्रायः उतनी ही रहती हैं। 'आवश्यकता किसे कहते हैं ?' यह बात अगर आप सर्वप्रथम समझ लें तो आपको अकृत्रिम और कृत्रिम आवश्यकताओं का शीघ्र ही पता लग जाएगा। जिसके अभाव में जीवन न चल सकता हो, वह आवश्यक पदार्थ है और उसका भाव आवश्यकता है।' इस कसौटी पर अगर हम पदार्थों को परखते जाएँ तो हमें पता चल जाएगा कि जिन्दगी टिकाने के लिए कौन-से पदार्थ आवश्यक हैं, कौन-से अनावश्यक ! पहली आवश्यक वस्तु है-हवा, जिसके बिना प्राणी अधिक जी नहीं सकता। दूसरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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