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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २७१ वस्तु है-पानी । पानी के बिना भी मनुष्य दीर्घकाल तक जीवित नहीं रह सकता। ये दोनों चीजें मनुष्य को खरीदनी नहीं पड़तीं, सर्वसुलभ हैं; प्रकृति इन दोनों वस्तुओं को बिना मूल्य देती है। तीसरा आवश्यक पदार्थ है-अन्न या भोजन । हवा के बिना मानव कुछ क्षणों तक पानी के बिना कुछ दिनों तक और भोजन के बिना कुछ महीनों तक जीवित रह सकता है। इसीलिए प्रकृति ने हवा की अपेक्षा पानी को और पानी की अपेक्षा अन्न को कम सुलभ रखा है । भोजन बिना मूल्य के प्रायः प्राप्त नहीं होता, फिर वह मूल्य श्रम के रूप में हो या अन्य किसी भी रूप में । परन्तु आज स्वादलोलुप लोग आवश्यक-अनावश्यक की परवाह किये बिना शरीर को तगड़ा और मोटा बनाने के लिए बिना ही जरूरत के पेट में लूंसे जाते हैं । वे बिना भोजन के एक दिन भी नहीं रह सकते, इसके अतिरिक्त स्वादलोलुप लोग आवश्यक भोजन के सिवाय कई तरह के व्यंजन, मिष्ठान, चटनी, अचार, मुरब्बे और न जाने क्या-क्या पेट में ठूसते रहते हैं। ऐसे भोजनभट्ट लोग स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा करके भी पेट भरने को ही अपना लक्ष्य मानते हैं । उनका लक्ष्य जीने के लिए खाना नहीं, खाने के लिए जीना होता है। उनमें और भुखमरे में शायद ही कोई अन्तर होगा ? एक चौबेजी के पुत्र ने अपने पिता से कहा- "पिताजी ! आज तो बड़ी दुविधा में फँस गया हूँ।" पिताजी ने पूछा- “ऐसी क्या बात है ? क्या आज कहीं से भोजन का न्यौता नहीं मिला ?” पुत्र ने खेदपूर्वक कहा- "भोजन का न्यौता तो मिला था और मैं अभी-अभी वहाँ से छककर भोजन करके आया हूँ। लेकिन फिर एक यजमान का निमंत्रण आया है, पेट में जगह नहीं है । पेट तो फटा जा रहा है।" पिता ने फटकारते हुए कहा- "मूर्ख ! प्राण तो दुबारा भी मिल जाएँगे, लेकिन भोजन का निमंत्रण दुबारा मिलना मुश्किल है।" ___ आप अपने दिल में सोचें कि हम भी क्या इसी तरह स्वादेन्द्रिय की तृप्ति के लिए भोजन तो नहीं करते ? यतनाशील साधक को तो अपने अन्तर् से पूरा विवेक करना होगा कि मुझे श्रावकगण तो भक्तिवश सरस स्वादिष्ट भोजन दे रहे हैं, किन्तु क्या मैं इस भोजन के बिना चला नहीं सकता ? यदि इस भोजन के सिवाय अन्यत्र कहीं सादा भोजन सुलभ नहीं है तो क्या श्रावक जितना आग्रह करे, उतना ही लेना आवश्यक है ? केवल पेट को भाड़ा देने और शरीर को टिकाने के लिए ही तो मुझे भोजन करना है ? क्या मैं इस स्थूल आहार को छोड़कर सूक्ष्म आहार से काम नहीं चला सकता ? इस प्रकार यतनाशील साधक सूक्ष्म प्रज्ञा से निर्णय करे। चौथी आवश्यक वस्तु है-वस्त्र ! वस्त्र के बिना भी मनुष्य रह सकता है, किन्तु ऐसी शक्ति सभी मनुष्यों में नहीं होती। वस्त्रधारण का मुख्य प्रयोजन हैशीत-ताप से शरीर की सुरक्षा और लज्जानिवारण। किन्तु सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता गया, त्यों-त्यों अधिकाधिक वस्त्रों से और वह भी बारीक, बहुमूल्य एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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