SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ साध कहावन कठिन है, लंबा पेड़ खजूर । चढ़े तो चाखै प्रेमरस, गिरे तो चकनाचूर ॥ वास्तव में साधु का जीवन खजूर के पेड़ की तरह बहुत ही ऊँचा है। परन्तु अगर साधु सावधानी (यतना) पूर्वक इतनी ऊँचाई पर चढ़ जाता है तो संयम और प्रेम के माधुर्य का आस्वादन कर लेता है; और अगर वह अयतनापूर्वक चढ़ता या चलता है, तो इतनी ऊँचाई पर चढ़कर भी शीघ्र ही गिर जाता है। ऐसे साधक लक्ष्यभ्रष्ट हो जाते हैं, वे अपना लक्ष्य स्थायी और सुदृढ़ को न बनाकर अस्थायी और क्षणभंगुर को बना लेते हैं । मैं एक रूपक द्वारा इसे समझा दूँ एक चिड़िया नीले गगन में मँडरा रही थी। उसने उपर कुछ दूरी पर चमकता हुआ शुभ्र बादल देखा । देखते ही सोचा- 'मैं चट से उड़कर उस बादल को छु लं ।' यों वह चिड़या उस बादल को लक्ष्य बनाकर पूरी शक्ति से उड़ी, किन्तु वह बादल कभी तो पूर्व की ओर चला जाता, कभी पश्चिम की ओर । और कभी वह सहसा रुक जाता, फिर चक्कर लगाने लगता। यों वह फैलता गया, लेकिन चिड़या उस तक पहुँच भी नहीं पाई थी कि वह एकदम बिखर गया और आँखों से ओझल हो गया। उस चिड़या ने बहुत परिश्रम से वहाँ पहुँचकर भी जब कुछ भी न पाया तो मन ही मन सोचा-'मैं कितनी भ्रान्ति में थी ! मैंने उन चिरस्थायी सुदृढ़ पर्वत शिखरों को लक्ष्य न बनाकर इन क्षणभंगुर बादलों को लक्ष्य बनाया ।' क्या यही हाल अयतनाशील साधुओं का नहीं है ? वे भी अपना लक्ष्य स्थायी शाश्वत शान्ति के धाम को न बनाकर, मोक्ष की प्राप्ति और उसके लिए राग-द्वेष-मोह, कषाय आदि से मुक्ति के यतनापूर्वक पुरुषार्थ का ध्यान न रखकर अस्थायी, शरीर की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाने वाली एवं क्षणभंगुर यश-कीर्ति, नामना, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा आदि को अपना लक्ष्य बनाते हैं और उन्हीं की प्राप्ति के लिए साधन जुटाने और पुरुषार्थ करने का ध्यान रखते हैं । यतनाशील साधु को इन और ऐसी ही अस्थायी और क्षणभंगुर वस्तुओं को अपना लक्ष्य न बनाकर स्थायी और शाश्वत वस्तुओं को लक्ष्य बनाना उपयुक्त है । मगर असावधान साधक भ्रांतिवश ऐसी अस्थाई और क्षणभंगुर चीजों को पाने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करते हैं, जो अन्त में जाकर बादलों की तरह बिखर जाती हैं, अदृश्य हो जाती है। अयतनाशील साधक इस असावधानी के शिकार बनकर अस्थायी की प्राप्ति के लिए अनेकों हथकंडे अपनाते हैं। वे यह भूल जाते हैं, इन अस्थायी वस्तुओं, क्षणिक सांसारिक सुखसुविधाओं, नामना एवं प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़कर कितना पाप उपार्जन कर लेते हैं-ईर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, पर-निन्दा, स्वप्रशंसा आदि के माध्यम लेकर ? कबीरजी भी यथार्थरूप से ललकार रहे हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy