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यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २६३ मानकर चलो कि यदि तुम यतनाशील, सावधान या जागृत हो तो पापरूपी चोरों के घुसने की कभी हिम्मत नहीं हो सकती । इसलिए मैं कहता था कि साधक की अयतनावस्था में ही पाप प्रविष्ट होते हैं, यतनावस्था - जागृतदशा में नहीं ।
पाश्चात्य विद्वान कार्लाइल ( Carlyle) कहता है
"The deadliest sin were the consciousness of no sin."
'सबसे प्राणघातक पाप किसी भी पाप के करने के होश में नहीं हुए थे ।' अयतनावस्था में प्रविष्ट पाप प्रवृत्तियाँ क्या करती हैं ?
साधक की अतना (असावधानी) से ये पापप्रवृत्तियाँ फिर उसके अन्तर्बाह्य जीवन को दुर्भावनाओं और दुष्कृत्यों के जंजाल में जकड़ लेती हैं, और जीवन के परम लक्ष्य से वंचित कर देती हैं । पापों के घनीभूत होते रहने से दिनोंदिन लक्ष्य की दूरी बढ़ती जाती है । ऐसा वेषधारी मायाचारी साधक पाप में ही जीता है, पाप में ही मरता है और फिर पापमय वातावरण में ही जीवन धारण करता है । पाप के पर्दे की ओट में लुजपु ंज साधक फिर अपने शाश्वत सत्य जीवन केन्द्र, वीतराग परमात्मा या शुद्ध आत्मा के दर्शन नहीं कर पाता । शास्त्रकारों ने ऐसे साधक को 'पापी श्रमण' कहा है ।
इसीलिए साधु को लक्ष्य की प्राप्ति, विराट् की अनुभूति एवं विश्ववत्सल वीतराग प्रभु के दर्शनों के लिए निष्पाप होना पड़ेगा । और निष्पाप होने के लिए तना को जीवन का प्रतिपद प्रहरी बनाकर चलना होगा । प्रत्येक छोटी या बड़ी, तुच्छ या महान, मानसिक, वाचिक या कायिक प्रवृत्ति के साथ प्राणरूप यतना को जोड़ देना होगा ।
यतना का तीसरा अर्थ : सावधानी - अप्रमत्तता
मैं इससे पूर्व दो प्रवचनों में यतना के दो रूपों के विषय में विस्तृत रूप से विवेचन कर चुका हूँ । आइए, अब यतना के अन्य रूपों पर भी विचार कर लें ।
मैं पहले कह चुका हूँ कि गाफिल जीवन में पाप घुस जाते हैं । इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र में साधक को बहुत सावधानीपूर्वक चलने का निर्देश किया गया है— 'भारंड पक्खीव चरऽप्पमत्तो'
'साधक भारण्ड पक्षी की तरह सदा अप्रमत्त - सावधान होकर विचरण करें ।' सावधानी का दूसरा नाम ही यतना है ।
इस संसार में पद-पद पर पतन की खाइयाँ हैं, चारों ओर पाशबन्धन हैं, मोह का जाल चारों ओर विछा हुआ है, ऐसी परिस्थिति में साधु को पूरी यतना के साथ चलना है । कहीं ऐसा न हो कि वह इनमें लिप्त होकर पतित और भ्रष्ट हो जाए । सन्त कबीर ने एक दोहे में साधु को यतना की सुन्दर प्रेरणा दी है—
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