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________________ २६२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अयतना (बेहोशी-मूर्छा) में ही पाप सम्भव, यतना में नहीं ___ वस्तुतः देखा जाय तो पाप, फिर वह किसी भी प्रकार का हो, १८ पापस्थानकों में से किसी भी पापस्थानक से प्रादुर्भ त हुआ हो, होता है-बेहोशी, गफलत या असावधानी में ही। जिसे हम अयतना कहते हैं । यदि यतनापूर्वक या होश में मनुष्य रहे, सावधान रहे तो कोई कारण नहीं कि पाप हो जाए। होशपूर्वक तो कोई भी पाप करना प्रायः असम्भव है। एक उदाहरण के द्वारा इसे स्पष्ट कर दूं एक बहुत बड़ा पापी एक अन्धकारपूर्ण रात्रि में किसी सन्त के झोंपड़े में प्रविष्ट हुआ । उसने प्रणाम कर सन्त से प्रार्थना की—“गुरुदेव ! मैं आपका शिष्य होना चाहता हूँ।" सन्त ने शांत व प्रसन्न भाव से कहा- “स्वागत है, भैया ! परमात्मा के द्वार पर सब का स्वागत है।" आगन्तुक कुछ आश्चर्यचकित होकर बोला, "लेकिन पूज्य ! मुझ में बहुत से दोष हैं, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ।" संत मुस्कराकर कहने लगा- "भला परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता है तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन होता हूँ। मैं भी तुम्हें सब पापों के साथ स्वीकार करता हूँ।" ___आगन्तुक बोला- "लेकिन मैं व्यभिचारी हूँ, शराबी हूँ, जुआरी हूँ और चोर हूँ।" सन्त ने गम्भीर मुद्रा में कहा-"इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक. बात का ध्यान रखना, जैसे मैंने तुम्हें स्वीकार किया, वैसे ही क्या तुम भी मुझे स्वीकार करोगे ? तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय क्या इतना-सा ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो ? मैं तुम से कम से कम इतनी तो आशा रख ही सकता है।" आगन्तुक ने सन्त की बात स्वीकार की । गुरु के वचन का इतना आदर करना तो स्वाभाविक था। वह गुरु का आशीर्वाद लेकर चल पड़ा । लेकिन जब वह कुछ दिनों के बाद गुरु के पास आया तो उन्होंने पूछा-'बताओ तुम्हारे उन पापों का क्या हाल है ? क्या अब भी तुम उन पापों को पहले की तरह करते हो ?'' वह खिलखिलाकर हँसा और कहने लगा- 'जैसे ही मैं असावधान होकर किसी पाप में पड़ने लगता हूँ कि फौरन आपका चेहरा मेरे सामने आ जाता है, बस मैं तुरंत होश में आ जाता हूँ। आपकी उपस्थिति मुझे तुरन्त जगा देती है और जागते हुए तो पाप के गड्ढे में गिरना मेरे लिए असम्भव हो जाता है । अतः अब मैं कोई भी पाप नहीं कर सकता।" सन्त ने उससे कहा-"मेरे देखते पाप नहीं होता, इसकी अपेक्षा तो तुम यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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