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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २६५ माया तजी तो क्या भया, मान तजा नहिं जाय । मान बडे मुनिवर गले, मान सबन को खाय ॥ गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़े मार्मिक शब्दों में साधु को यतनाशील बनने की प्रेरणा दी है जग से रह छत्तीस ह, रामचरन छह तीन । तुलसी देखु विचार हिय, है यह मतो प्रवीन । साधक को इतना सावधान होकर चलना है कि संसार में विचरण करते हुए भी वह संसार से सांसारिकता-दुनियादारी के प्रपंचों से निर्लिप्त एवं विमुख होकर रह सके । सन्त कबीर ने दुनिया को काजल कोठरी की उपमा देते हुए कहा है काजर केरी कोठरी, ऐसा यह संसार। बलिहारी वा साधु की, पैठि के निकसन हार ॥ अन्यथा, बाह्य रूप से कुटुम्ब-कबीला एवं भोग-सामग्री को छोड़ देने पर भी वह पुनः-पुनः साधक के असावधान मानस में अड्डा जमा लेगी। अयतनाशील साधक के एक कुटुम्ब छोड़ देने पर भी यहाँ शिष्य-शिष्याओं, भक्त-भक्ताओं की आसक्ति घेर लेगी। इसी प्रकार एक घर छोड़ देने पर भी अनेक भक्तों के घरों और सम्प्रदायरागी लोगों के ग्राम-नगरों का मोह पुनः जकड़ लेगा। धन-सम्पत्ति का परिग्रह छोड़ देने पर भी पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, आदि की मूर्छा पिण्ड नहीं छोड़ेगी। इन सबसे पिण्ड तभी छूट सकता है, जब साधक प्रतिपद सावधान, यतनायुक्त होकर इनमें मिले नहीं, इनसे निर्लिप्त होकर रहे। एक पाश्चात्य विचारक वेनिंग (Venning) ने ठीक ही कहा है "Some rivers, as historians tell us, pass through others without mingling with them; just so should pass a saint through this world." 'जैसा कि कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं, कुछ नदियाँ दूसरी नदियों के साथ बिना मिले ही उनके पास से होकर गुजर जाती हैं, वैसे ही साधु को इस संसार से बिना मिले ही पास से होकर गुजरना चाहिए।' यतनाशील साधक सोया हुआ नहीं रह सकता । वह प्रमादी बनकर अपने साधुजीवन के प्रति असावधान नहीं रह सकता। सोने वाला साधक अपने संयमवैभव को खो देता है । वह जीवन-निर्माण के सुन्दर अवसरों को गँवा देता है । इसीलिए प्रतिक्षण सावधान भक्ता मीराबाई ने कहा था ___"शूली ऊपर सेज हमारी, किस विध सोणौ होय?" । मेरी शय्या तो शूली पर है। शूली पर जिसकी शय्या है, वह गाफिल बनकर कैसे सो सकता है ? वह तो प्रतिक्षण जागृत और अप्रमत्त रहकर ही ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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