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________________ २५२ आनन्द प्रवचन : भाग दयालुओं को देखकर ही मुझे हँसी आ गई थी। दूसरों को फँसाने के लिए तुमने पटक्रिया का अच्छा जाल बिछा रखा है । " बन्धुओ ! साधुजीवन में इस प्रकार की कपटक्रिया नहीं होनी चाहिए, इस प्रकार यतना का नाटक करने से पापकर्म का बन्ध होता है, जिससे पुन: पुन: जन्म - मरण करना पड़ता है । कायिकक्रिया से निवृत्ति का मूल्य । आज सारे संसार में प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गई है क्या शरीर से, क्या वाणी से और क्या मन से, तीनों से बहुत अधिक प्रवृत्ति हो रही है । साधु वर्ग में भी देखा जाए तो कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रवृत्तियाँ बहुत ही अधिक बढ़ हैं । कई-कई साधुओं को व्यस्तता ही अधिक पसंद है । वे दिनभर भीड़ से घिरे रहने में ही अपना गौरव समझते हैं । ऐसे महानुभाव आवश्यक दैनिक प्रवृत्ति करना भी भूल जाते हैं और दिनभर कार्यक्रमों के चक्कर में पड़े रहते हैं । अभी एक जगह प्रवचन का कार्यक्रम है तो घन्टे बाद दूसरी जगह, फिर तीसरे या चौथे घन्टे में विद्यालय में कार्यक्रम है । वहाँ से फारिग हुए कि लोगों का जमघट आ घेरता है और इधर-उधर की, राजनीति की, समाज और परिवार की, न जाने कहाँ-कहाँ की बातें उनके सामने छेड़ते रहते हैं । ऐसे प्रसिद्ध और तेजस्वी साधु अपनी शक्ति, समय और बुद्धि प्रायः इन्हीं प्रवृत्तियों में लगाये रहते हैं । कई बार तो वे शारीरिक वेगों का भी निरोध कर लेते हैं । इस अत्यधिक प्रवृत्ति से जीवनीशक्ति नष्ट हो जाती है । अत्यधिक दौड़-धूप और सक्रियता से श्वास की गति तीव्र हो जाती है, वही शक्ति के अधिक व्यय का कारण बनती है । आज अधिकांश साधकों, खासकर प्रसिद्ध साधुओं में ब्लेडप्रेशर ( रक्तचाप), मधुमेह, कायिक तनाव, मस्तिष्कीय तनाव एवं अन्य अनेक बीमारियाँ पाई जाती हैं । प्रवृत्ति बहुलता या अतिव्यस्तता ही इन सबका मुख्य कारण है । इन मानसिक विकृतियों एवं शारीरिक व्याधियों से बचने का एकमात्र साधन है— काया की स्थिरता, अतिव्यस्तता या अतिप्रवृत्ति से निवृत्ति । वास्तव में देखा जाए तो प्रवृत्तिं करने के बाद उसमें आए हुए दोषों की शुद्ध निवृत्ति आवश्यक है । क्रिया-निवृत्ति का मूल्य क्रिया-प्रवृत्ति से कम नहीं है । न करने का मूल्य शान्तचित्त से सोचने पर करने से अधिक प्रतीत होगा । परन्तु आज के इस प्रवृत्तिबहुल युग में निवृत्ति का मूल्य बुद्धिवादियों की समझ में नहीं आता । प्राचीनकाल का साधक अतिप्रवृत्ति नहीं करता था, वह दिनभर में जो कुछ भी प्रवृत्ति करता, उसकी शुद्धि के लिए रात्रि को निवृत्ति अपनाता और प्रतिक्रमण, ध्यान, स्वाध्याय, मौन आदि द्वारा शुद्धीकरण करके पुनः प्रवृत्ति करता । आज के युग में सारा जोर प्रवृत्ति पर दिया जा रहा है । क्या राजनैतिक, क्या सामाजिक और क्या धार्मिक सभी क्षेत्रों के अग्रगण्य लोग प्रवृत्ति करने वाले को कर्मठ और निवृत्ति करने वाले को अकर्मण्य मानते हैं । ये लोग कहने लगे हैं, खास - I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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