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यत्नवान मुनि को तजते पाप : २
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तौर से अर्थशास्त्री भी कि जो निठल्ला है, उसके लिए दुनिया में कोई स्थान नहीं है, इसलिए कुछ न कुछ काम करते रहो, निकम्मे मत रहो । परन्तु जैनशास्त्र इस प्रकार के उथले विचार नहीं करता, वह न तो एकान्त प्रवृत्तिपोषक है, और न ही एकान्त निवृत्तिपोषक।
अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से कहें तो वर्तमान के संघर्ष का सबसे बड़ा कारण है-प्रवृत्ति को एकाधिकार देना। संसार में वर्तमान में जो अशान्ति है, बेचैनी है, तनाव और द्वन्द्व है, उसका मूल कारण है क्रिया को ही महत्त्व देना, अक्रिया का मूल्यांकन न करना । न करने के वास्तविक मूल्य को अस्वीकार करना ही लोकजीवन की अशुद्धि का मूल कारण है। यतना प्रवृत्ति के साथ-साथ निवृत्ति का विवेक भी करती है । वह साधक को यह प्रेरणा देती है कि जहाँ तक हो सके क्रिया या प्रवृत्ति कम करो, अगर एक प्रवृत्ति से काम चल जाता हो तो दो मत करो। क्योंकि एक सिद्धान्तसूत्र है हमारे यहाँ-क्रियाएकर्म, उपयोगेधर्म, परिणामेबन्ध' क्रिया से कर्म (आस्रव) आते हैं, उनमें उपयोग होने पर धर्म होगा, तथा जैसे परिणाम होंगे, तदनुसार शुभ या अशुभकर्मों का बन्ध होगा। इस अयतनापूर्वक क्रिया करने से अशुभ (पाप) कर्मों का बन्ध होना स्वाभाविक है । इसीलिए जब गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि कायगुप्ति (काया का कर्मबन्ध से रक्षा) से साधक को क्या लाभ होता है ? तब इसके उत्तर में भगवान ने फरमाया कि कायगुप्ति से संवर (कर्मों का निरोध) होता है। संवर होने से काया के भीतर हमारी शुद्ध चेतना के सिवाय विजातीय तत्त्व अन्दर नहीं घुस सकते । जबकि बिना यतना के अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति करने पर विजातीय द्रव्य प्रविष्ट होकर जीवन को अशान्त और कलुषित कर देते हैं । कायगुप्ति भी यतना का ही अंग है, जिसमें काया को उस प्रवृत्ति से बचाया जाता है, जिस प्रवृत्ति से आत्मलाभ न हो। केवल प्रतिष्ठा, प्रशंसा या यश-कीर्ति मिल जाना, कोई आत्मिक लाभ नहीं है । जैसे मजदूर को श्रम करने पर उसका पारिश्रमिक मिल जाता है, परन्तु इससे अधिक उसे कोई आत्मिक आनन्द, आत्मिक लाभ या धर्मलाभ नहीं मिलता, वैसे ही निरुद्देश्य विविध कायिक क्रिया करने वाले को भी कुछ बाह्यलाभ मिल जाता है, आन्तरिक लाभ नहीं।
वाचिकक्रिया से निवृत्ति का मूल्य प्रवृत्ति का दूसरा साधन वाणी है । मनुष्य आज बोलने की प्रवृत्ति का मूल्य बहुत आँकता है। एक कहावत है—'बोले एना बोर वेचाय', किन्तु यतना केवल बोलने की प्रवृत्ति से ही सम्बन्धित नहीं, अपितु वह बोलने की निवृत्ति से भी सम्बद्ध है । किन्तु साधनाजगत् में साधकों के लिए बोलने के मूल्य की अपेक्षा, न बोलने का मूल्य अधिक समझा जाता है। यह एक सिद्धान्तसम्मत तथ्य है कि जैसे-जैसे मनुष्य
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