SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : २ २५१ जप करते हैं, वे यतना से कोसों दूर हैं, पाप से छुटकारा पाने के बदले वे सौ मन पाप का बोझ और बढ़ा लेते हैं। इसलिए वाणी की क्रिया में कहाँ निवृत्ति हो, कहाँ प्रवृत्ति ? इसका विवेक करना ही यतना है, जिसे यत्नवान साधु करता है। इसी प्रकार चलने की क्रिया में भी यत्नवान साधु को प्रवृत्ति और निवृत्ति का विवेक करना आवश्यक है । साधु को इतना विवेक होना चाहिए कि कहाँ चलना है ? कहाँ नहीं जाना है ? व्यर्थ ही भटकने का कोई मतलब नहीं होता। गमनक्रिया कहाँ, कब, कितनी दूर और कैसे करनी है और कहाँ, कब, कितनी दूर और किस प्रकार नहीं करनी है ? यह विवेक करना ही गमनक्रिया की यतना है । कई साधु जब कोई भक्त या श्रावक न देखता हो, तब तो बिना देखे, समय का खयाल रखे बिना और बिना ही सोचे धड़ाधड़ चलते जाते हैं, और जब किसी श्रावक या भक्त को, या विपक्षी सम्प्रदाय के व्यक्ति को देखते हैं तो कदम फूंक-फूंककर रखने लगते हैं, यतनापूर्वक चलने का दिखावा करते हैं, यह गमनक्रिया में विवेक या यतना नहीं है, यह निरा दम्भ है, इससे कोई कल्याण नहीं होता। यतनापूर्वक गमन का प्रदर्शन माया से लिपटा हुआ होता है, उससे पाप आते हुए कैसे रुकेंगे ? फूंक-फूंककर चलने की क्रिया से कैसे परवंचना होती है ? इसके लिए एक रोचक उदाहरण लीजिए . एक बार बूढ़े सिंह को अत्यन्त भूख लगी; परन्तु सिंह की वृत्ति के अनुसार वह दूसरे के द्वारा मारकर लाया हुआ मांस तो खा नहीं सकता था, स्वयं मारने जितनी ताकत शरीर में नहीं रह गई थी । अतः दूसरा प्राणी स्वयं मेरे निकट आजाए, इस दृष्टि से वह यतनापूर्वक फूंक-फूंककर चलने का अभिनय करने लगा। एक बंदर पेड़ की डाली पर बैठा-बैठा सिंह की इस यतनापूर्वक चलने की साधुवृत्ति देखकर बहुत प्रभावित हुआ। बंदर ने पेड़ की डाली पर बैठे-बैठे ही पूछा- “महाराज ! आप तो साधु की तरह बहुत ही फूंक-फूंककर कदम रखते हैं। आपमें यह जीवदया की वृत्ति कब से आ गई ?" सिंह बोला- "भाई ! मैंने अपनी जिन्दगी में बहुत-से जीवों को मारा, अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, अपनी अंतिम जिन्दगी में मैं जीवदया की वृत्ति धारण करके प्रत्येक कदम संभल-संभलकर रखता हूँ ताकि कोई भी जीव न मर जाए।" सिंह की नकली यतना से प्रभावित होकर बन्दर उस साधुरूप सिंह के चरण छूने के लिए उसके निकट आया। परन्तु यह क्या ? बन्दर के निकट आते ही सिंह ने उसे दबोच लिया। मगर बन्दर भी चालाक था। वह सिंह की धूर्तता समझ गया और जोर से हँसने लगा । बन्दर को हँसते देख सिंह ने पूछा-"अब मृत्यु के समय हँसते क्यों हो ?" बन्दर ने कहा- 'आप मुझे थोड़ी देर के लिए छोड़कर अपनी बात कहने दीजिए।" सिंह ने विश्वास करके बन्दर को छोड़ दिया। छोड़ते ही बन्दर उछलकर पुनः वृक्ष की डाली पर जा पहुँचा और कहने लगा-"तुम जैसे कपटी एवं नकली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy