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________________ सत्यशरण सदैव सुखदायो ७ दुष्ट दत्त जिन्दा रहेगा तो फिर कोई न कोई उत्पात मचाएगा। अतः उसे लोहे की कोठी में बन्द कर दिया। उसमें अनेक दिनों तक अपार कष्ट भोगता हुआ, विलाप करता-करता दत्त मर गया और वहाँ से सातवीं नरक में पहुंचा। __ कालकाचार्य चारित्र पालन करके सत्यशरण के प्रभाव से महाविपत्ति से बच गए और स्वर्ग पहुँचे । इसीलिए महाभारत के अनुशासनपर्द में कहा है-- आत्महेतोः परार्थेवा, नर्महास्याश्रयात्तथा। न मृषा वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः॥ --जो लोग इस संसार में अपने स्वार्थ के लिए या दूसरे के लिए अथवा . विनोद या मजाक में भी असत्य नहीं बोलते, वे सत्यवादी स्वर्गगामी होते हैं। बन्धुओ ! कालकाचार्य सत्यशरण से ही उद्दण्ड और क्रूर राजा के कोपभाजन होने से और उसके द्वारा होने वाली हत्या से बच सके । सत्य ने ही अपने शरणागत को रक्षा की। सत्य की शरण में जाने पर परिपूर्णकाम बहुत से लोग कहते हैं-सत्य की शरण में जाने पर मनुष्य अपनी इच्छाएँ पूर्ण नहीं कर सकता, उसे अपनी बहुत-सी इच्छाओं को दबाना पड़ता है, वह अनेक अभावों से पीड़ित रहता है । और तो क्या, सुख से जीवनयापन भी नहीं कर सकता । परन्तु यह कथन उन्हीं लोगों का है, जिन्हें सत्य की परमशक्ति पर विश्वास नहीं है, जिन्हें सांसारिक पदार्थों की तृष्णा सताती रहती है, जो झूठे सम्मान और झूठी प्रतिष्ठा एवं क्षणिक यशोगान के भूखे रहते हैं, जिनका मन शारीरिक और इन्द्रियविषयजनित सुखों की लालसा से घिरा रहता है, जो स्वाधीन एवं वास्तविक आत्मसुख को जानते नहीं। ऐसे लोग ही अपनी सांसारिक सुखमयी दृष्टि से सत्यशरणलीन महापुरुषों के जीवन को आँको करते हैं । सत्यनिष्ठ राजा हरिश्चन्द्र को सत्य की शरण में जाने पर कितना कष्ट उठाना पड़ा। अपना राजपाट, धन-धाम, ऐशआराम सब कुछ छोड़कर उन्हें पैदल अयोध्या से काशी भागना पड़ा । रास्ते में अनेक कष्ट भोगे। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और थकान आदि के कष्ट तो थे ही, अपमान का कष्ट भी क्या कम था। काशी जाने पर विश्वामित्र की ओर से बार-बार एक सहस्र स्वर्णमुद्राओं का तकाजा और क्रोधावेश में आकर धमकी, यहीं तक दुःखों का अन्त नहीं हुआ। उन्हें अपनी रानी तारामती को भी बेचना पड़ा, स्वयं को भी भंगी के यहाँ बिकना पड़ा, अपने पुत्र-पत्नी का वियोग सहना पड़ा । भंगी के यहाँ भी कम अपमान नहीं था। इन बातों पर से साधारण स्थूलदृष्टि का मानव यही अनुमान कर लेता है कि सत्य की शरण में जाने से ही अनेकों दुःख राजा हरिश्चन्द्र को सहने पड़े। परन्तु राजा हरिश्चन्द्र के मन से अगर वे पूछते कि आपको कितने कष्ट सहने पड़े हैं ? तो शायद वे यही कहते--''सत्य की रक्षा करने में मुझे जो आनन्द आया, उससे मेरी आत्मा का जो विकास हुआ, तथा मेरी जो सहनशक्ति बढ़ी, आत्मा पर जो राजा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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