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________________ आनन्द प्रवचन : भाग है शरण ली है, वही विपत्तियों का रक्षक है । अतः कुछ भी हो जाय अनेक दुःखों का कारण, यशोनाशक असत्य तो मैं जरा भी नहीं कहूँगा ।' यह सोचकर आचार्यश्री ने दत्तराजा से कहा -- राजन् ! यदि सत्य ही सुनना चाहते हो तो हिंसाजनक यज्ञ का फल नरक ही है । कहा भी है यूपं कृत्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ? "यज्ञस्तम्भ गाड़कर, पशुओं को मारकर और रक्त का कीचड़ करके अगर कोई स्वर्ग में जा सकता है तो फिर नरक में कौन जाएगा ?" इस पर दत्तराजा ने तमककर कहा -- “आपके इन गपोड़ों को मैं नहीं मानता । मुझे तो यह बताइए कि यज्ञ का फल नरक है, यह प्रत्यक्ष कैसे जाना जा सकता है ? क्या आपने किसी को नरक में जाते हुए देखा है ?" आचार्यश्री ने निर्भीकता से सच-सच कह दिया - " आज से सातवें दिन घोड़े के खुर उछलकर विष्ठा तेरे मुख में पड़ेगी, फिर तू लोहे की कुम्भी में डाला जाएगा । अगर मेरी यह बात सच निकले तो उस पर से तू अनुमान लगा लेना कि तुझे अवश्य ही नरक में जाना पड़ेगा । " दत्तराजा सत्ता के अभिमान में बोला -- " और आपकी कौन-सी गति होगी ?" आचार्य बोले -- "हम अहिंसा आदि धर्म पर चलने वाले हैं, धर्म के प्रभाव से देवगति ही होगी हमारी ।" यह सुन दत्त क्रोध से अत्यन्त भभक उठा । उसने मन ही मन सोचा - अगर सात दिनों में यह बात नहीं बनी तो आचार्य को मौत के घाट उतार दूँगा । उसने आचार्यश्री के चारों ओर सुभटों का पहरा बिठा दिया, ताकि वे कहीं भाग न जाएँ । स्वयं नगर में आया और नगर के सारे रास्तों पर से मलमूत्र आदि की गंदगी हटवा कर सारे नगर की सफाई करवा दी तथा सात दिन तक सर्वत्र फूल बिछा देने का आदेश देकर स्वयं अन्तःपुर में जा बैठा । जब छह दिवस बीत गये, तब आठवें दिन की भ्रान्ति से कोपायमान दत्तराजा अपने घोड़े पर सवार होकर आचार्यश्री को मारने के लिए आ रहा था । एक जगह एक बूढ़े माली ने टट्टी की असह्य हाजत हो जाने से जहाँ फूल बिछाए हुए थे, वहाँ मार्ग के बीच में ही शौचक्रिया करके उस पर फूल ढक दिये थे । राजा का घोड़ा उसी रास्ते से आ रहा था । सहसा उसी विष्ठा पर घोड़े का पैर पड़ा और उसका छींटा उछलकर राजा के मुँह में पड़ा । राजा एकदम चौंका । आचार्यश्री द्वारा कही हुई बात पर उसे विश्वास हो गया । अतः वह वापिस लौटा । इसी बीच एकान्त स्थान देखकर भूतपूर्व राजा के विश्वस्त सिपाहियों ने उसे दुष्ट जानकर पकड़ लिया और भतपूर्व राजा जितशत्रु को पुनः राजगद्दी पर बिठा दिया । सामन्तों ने सोचा कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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