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________________ ८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ वैभवशाली, भाग्यवान, सत्ताधीश आदि पदों के अहंकार के जो विकार पड़े थे, वे दूर हुए, आत्मा अपने असली स्वभाव में आकर चमक उठा, एक महात्मा के समान मेरा जीवन कष्टों की भट्टी में तपकर खरा सोना बन गया, यह लाभ उन शारीरिक और मानसिक कष्टों की अपेक्षा कई गुना है, जो मुझे मिला है । अगर मैं सत्य पर दृढ़ न रहता तो इतनी उपलब्धियाँ कहाँ से होतीं।" वास्तव में, सत्य की शरण में जाने पर मनुष्य सांसारिक सुखभोग की कामनाओं से दूर होता जाता है । एक दिन वह परिपूर्णकाम हो जाता है, तृप्त हो जाता है । भगवद्गीता के शब्दों में यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ "जो मानव आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त हो जाता है, और आत्मा में ही सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहता।" सत्यनिष्ठ व्यक्ति आत्मा में तृप्त और सन्तुष्ट हो जाता है, वह अपने आत्मसुख में, आत्मस्वभाव में रत हो जाता है, तब उसके मन में सांसारिक पदार्थों तथा तज्जन्य सुखों की कामना शनैः-शनैः लुप्त हो जाती है। पुराणों में एक कथा आती है। मनुष्य को अपूर्णता बुरी लगी, उसने पूर्ण बनने की सोची और उसका उपाय पूछने ब्रह्माजी के पास पहुँचा। ब्रह्माजी ने मनुष्य का आशय समझा और कहा--"वत्स ! सत्य को धारण करने से पूर्णता प्राप्त होगी। जिसके पास जितना सत्य होता है वह उतनी ही पूर्णता प्राप्त कर लेता है। अतः तू सत्य की उपासना कर।" यह पौराणिक कथा संकेत करती है कि जो मनुष्य सत्य की शरण में जाकर उसकी निष्ठापूर्वक उपासना करता है, प्रत्येक कसौटी के प्रसंग पर अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय देता है, वह बाह्य पदार्थों, बाह्य सुखों एवं मोहक सम्मानादि द्वन्द्वों के भँवरजाल में नहीं फँसता । उसे इनकी परवाह नहीं रहती, उसे अपनी आत्मा में ही असीम सुख, सन्तोष और तृप्ति का आनन्द मिल जाता है । फिर उसे लक्ष्मी या बाह्य सुख के चले जाने का दुःख नहीं होता, उसे सत्य का परित्याग करने में ही दुःख का अनुभव होता है । महाभारत में शान्तनु राजा के जीवन की एक विविष्ट घटना दी गई है। उस कहानी का सारांश इतना ही है कि सत्यनिष्ठ मनुष्य धन, दान, शिष्टाचार या प्रसिद्धि, यशकीति, सम्मान, बाह्य सुख आदि के बिना तो रह सकता है, वह किसी चीज का अभाव महसूस नहीं करता, परन्तु सत्य के बिना नहीं रह सकता। म० गाँधी के शब्दों में कहूँ तो— “सत्य के पुजारी पर परिस्थिति का प्रभाव नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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