SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २२३ 'संसार में मृत शरीर (शव) के सिवाय कहीं निस्पन्दता क्रियारहितता नहीं है। उचित क्रिया के द्वारा ही फलप्राप्ति होती है। इसलिए देव की कल्पना व्यर्थ है।' इस कर्ममय (प्रवृत्तिमय) संसार में क्रिया से अधिक बलवती वस्तु और कुछ नहीं है । कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी कहा है शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्ध येदकर्मणः। "यदि तू कर्म करना छोड़ दे तो तेरी शरीरयात्रा भी नहीं चल सकती । कर्म (प्रवृत्ति) जीवन में अनिवार्य है।" अतः निवृत्ति का अर्थ भी प्रवृत्ति का रूपान्तर है। जैसे एक किसान खेती का काम निपटाकर आया और भोजन की प्रवृत्ति में लगा। एक भोगी आत्मसाधना से निवृत्त हुआ और विषयभोगों में प्रवृत्त हुआ। साधु के लिए कहा गया है एगया विरओ होई, अविरओ होइ एगया। असंजमे नियति च, संजमे य पवत्तणं ॥ ___ संयमी साधु एक ओर से विरत होता है तो दूसरी ओर प्रवृत्त भी होता है। असंयम से उसकी निवृत्ति होती है तो संयम में उसकी प्रवृत्ति होती है। निष्कर्ष यह है कि साधक में एक क्रिया से निवृत्ति होती है तो दूसरी में प्रवृत्ति । जीवन में मुख्यता प्रवृत्ति (क्रिया) की ही रहती है। निवृत्ति का अर्थ सर्वथा निश्चेष्ट हो जाना नहीं है, अपितु एक क्रिया-जो अभीष्ट नहीं है, या संयम के परिपोषण में इतनी सहायक नहीं है, बल्कि संयम को दूषित करने वाली है, उससे निवृत्त होना निवृत्ति है, परन्तु साथ ही उस साधक का मन दूसरी अच्छी प्रवृत्ति में संलग्न होना चाहिए। शास्त्रीय परिभाषा में व्यवहार चारित्र का लक्षण यही किया गया है __ "असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारित्त।" 'अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो।' जो व्यक्ति बाहर से अपने शरीर और इन्द्रियों को निश्चेष्ट करके मन ही मन विषयों के चिन्तनरूप प्रवृत्ति करता रहता है, वह ढोंगी और दम्भी कहलाता है। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ .. जो व्यक्ति लोगों पर प्रभाव डालने के लिए बाहर से कर्मेन्द्रियों को रोककर निश्चेष्ट कर लेता है, लेकिन साथ ही मन में इन्द्रियविषयों का स्मरण करता रहता है, वह मूढात्मा मिथ्याचारी है, वह चारित्रवान नहीं, दम्भी है, प्रदर्शनकर्ता है। . यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है, और वह प्रायः सभी भारतीय धर्मों में उठाया गया है, वह यह है कि प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ कई दोष लगे हुए हैं। ऐसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy