SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ शास्त्रकार पापीश्रमण कहते हैं। उसकी निवृत्ति आलस्यपोषक और पापवर्द्धक होती है, उसकी अपने खाने-पीने या सुख-सुविधाएँ प्राप्त करने की प्रवृत्ति भी पापपोषक होती है। जो अभीष्ट लक्ष्य की ओर गतिहीन हो जाता है, वह प्रायः मतिहीन, संकुचित एवं किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है। उसके सामने सारा जगत् अन्धकारमय व शून्य प्रतिभासित होता है । उसके अपने ही हाथ-पैर तथा अन्य अवयव अपने ही काम में नहीं आते, दूसरे के क्या काम आयेंगे? उसकी प्राकृतिक विभूतियाँ, नैसर्गिक शक्तियाँ उसके मिट्टी के शरीर में कंजूस के धन की तरह व्यर्थ गड़ी रहती हैं। - उसका विकारग्रस्त एवं भारस्वरूप जीवन शीघ्रता के साथ अशक्त, अक्षम और असमर्थ हो जाता है, उसका विकास कुण्ठित हो जाता है। इसीलिए अथर्ववेद में आगे बढ़ने को जीवन के लिए आवश्यक माना है 'आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम्' 'उन्नत होना और आगे बढ़ना, प्रत्येक जीव का लक्षण है। उसे रुकना नहीं चाहिए। अभीष्ट लक्ष्य की ओर चलते रहना ही जीवन की प्रकृति या सदगति है, रुक जाना ही उसकी विकृति या दुर्गति है।' साधक का लक्ष्य एकान्त निवृत्ति या प्रवृत्ति नहीं। कुछ लोग कहा करते हैं कि साधकजीवन का लक्ष्य एकान्त निवृत्ति है, इसलिए प्रवृत्ति या कार्य करते रहना या गति करते रहना ठीक नहीं है। लोकव्यवहार में यह माना जाता है कि काम के बाद आराम और आराम के बाद फिर काम जो करता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक काम कर सकता है, जो निरन्तर काम ही काम करता है, विश्राम बिलकुल नहीं करता । वास्तव में यही प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन है। निवृत्ति भी एक अर्थ में देखा जाए तो प्रवृत्ति ही है। लटू जब तेजी से घूमता है, तब ऐसा मालूम होता है, मानो वह स्थिर हो गया हो, वैसे ही निवृत्ति भी अन्दर में अनेक प्रवृत्तियों को जोरशोर से चलाती रहती है। यानी निवृत्ति भी गहरी प्रवृत्ति है। एकान्त निवृत्ति तो कभी होती ही नहीं। प्रत्येक वस्तु कोई न कोई क्रिया करती रहती है चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या कायिक । क्योंकि वस्तु का लक्षण ही अर्थक्रियाकारित्व है। वस्तु वह है, जो अपनी कुछ न कुछ क्रिया करती रहती है । जो कुछ नहीं करता, वह सत् या पदार्थ नहीं होता। जिसका अस्तित्व है, उसमें प्रवृत्ति है, सक्रियता है। योगवाशिष्ठ में जीवन में क्रिया का महत्व बताते हुए कहा है न च निस्पन्दता लोके. दृष्टेह शवतां विना। स्पन्दाच्च फलसम्प्राप्तिस्तस्माद् दैवं निरर्थकम् ॥ १. देखिये उत्तराध्ययन सूत्र (१७ अ० ३ गा०) में "जे केई उ पब्वइए, निद्दासीले पगामसो। भोच्चा पिच्चा सुहं सुवइ, पावसमणित्ति बुच्चइ ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy