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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २२१ __ गतिशील होना जीवनयात्री के लिए आवश्यक मनुष्य एक यात्री है । यात्री लोकमार्ग में स्वेच्छा से खड़ा नहीं रह सकता; या तो उसे आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथा उसे पीछे हटना होगा । संसार में उसे स्थायी रूप से ठहरने का स्थान कहीं नहीं है। संसार एक सराय है। इस परिवर्तनशील संसार में मनुष्य एक निश्चित समय के लिए आता है और कुछ न कुछ करके चला जाता है। संसार में वह टिकने के लिए नहीं आता । एक उर्दू कवि के शब्दों में कहूँ तो 'समझे अगर इंसान तो दिनरात सफर है' विश्वविख्यात उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है"जहाँ तक मैं समझता हूँ, जीवन कोई पड़ाव नहीं, बल्कि एक यात्रा है । जो व्यक्ति इस प्रकार का विश्वास करके सन्तोष कर लेता है कि अब मैं ठीक-ठिकाने से जम गया हूँ, उसे किसी अच्छी स्थिति में नहीं मानना चाहिए । ऐसा व्यक्ति सम्भवतः अवगति की ओर जा रहा है।" गतिशील होना ही जीवन का लक्षण है।" संयमी मुनि के लिए भी यही बात है, उसे भी अपनी जीवनयात्रा अविरल करनी पड़ती है। किसी मार्गदर्शक या सुयोग की प्रतीक्षा में उसे अपनी जीवनयात्रा को स्थगित करने का अधिकार नहीं है। यदि वह आत्मोन्नति करना चाहता है, अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहता है तो उसे विघ्न-बाधाओं में भी चलना पड़ेगा। चलते रहना ही संयम पथिक के जीवन का मुख्य उद्देश्य है । 'ऐतरेय ब्राह्मण' में स्पष्ट बताया है पुष्पिण्यो चरतो जंधे, भूष्णुरात्मा फलेपहिः । शेरेऽस्य सर्व पाप्मानः, श्रमेण प्रपथे हताः ॥ चरैवेति चरैवेति ॥ "जो चलता है, उसकी जाँघे परिपुष्ट होती है, फल प्राप्ति तक उद्योग करने वाला आत्मा पुरुषार्थी होता है। प्रयत्नशील व्यक्ति के पाप उसके श्रम से भव-मार्ग में ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।" यह देखा गया है कि अभीष्ट दिशा की ओर चलते रहने से जीवनयात्रा सुगम हो जाती है। उसमें आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियाँ और विघ्न-बाधाएँ अनुकूल होती जाती हैं, और मनुष्य अभ्यास करते-करते कहीं से कहीं पहुँच जाता है अपने लक्ष्य की ओर चलने वाला यात्री स्वस्थ, स्वतन्त्र, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली होता है। सुदूर भविष्य उसकी आँखों में झलकने लगता है, आगे बढ़ने वाले को स्वतः ही महापुरुषों से सहायता मिलती रहती है। ऐसे गतिशील साधक के जीवन से आशा, उमंग और सफलता की धारा प्रवाहित होती रहती है। वह आगे बढ़ता हुआ उन्नति करता दिखाई देता है। __इसके विपरीत जो साधक आलसी और अकर्मण्य बनकर, बैठा रहता है, अथवा जो खा-पीकर निरर्थक सोया रहता है, अजगर की तरह पड़ा रहता है, उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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