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________________ २१४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ (अग्नि, इन्द्र, वरुण, यम, भूमि, गो आदि) के साथ-साथ मेंढक तक की स्तुति मिलती है, जो बोलकर वर्षा के आगमन की सूचना देता है, जो कृषकों के लिए कृषि-सहायक है। इसी प्रकार छोटे-छोटे जंगलों (अरण्यानी) की भी स्तुति (प्रशंसा) की गई है, जिनके कारण जनता को खाने के लिए फल एवं अन्न मिलता है, वनस्पति, सुगन्धि और ईंधन आदि भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कृतज्ञता की भावनाओं से परस्पर आत्मीयता बढ़ती है, स्वभाव में कोमलता आती है, नम्रता की भावना भी रहती है। एक-दूसरे के गुणों का स्मरण करके कृतज्ञ लोग उन गुणों को स्वयं धारण करते हैं, जबकि कृतघ्नता की प्रतिमूर्ति इन सब गुणों से वंचित रहता है । वाल्मीकि रामायण में श्रीराम की कृतज्ञता की भावनाओं का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि राम मन पर नियन्त्रण रखने के कारण दूसरों द्वारा सैकड़ों अपराधों को भुला देते हैं लेकिन यदि कोई उनके साथ एक बार भी किसी प्रकार का उपकार कर दे तो उसी से सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे उसे नित्य स्मरण रखते हैं।' वास्तव में जो दूसरों के प्रति कृतज्ञ रहता है, वह सदा प्रसन्न रहता है। पाश्चात्य विचारक सेक्कर (Secker) भी इन्हीं विचारों का समर्थन करता है ___ "He enjoys much, who is thankful for little; a grateful mind is both a great and a happy mind.” 'जो जरा-से उपकार के लिए कृतज्ञ रहता है, वह महान् प्रसन्नता का अनुभव करता है, क्योंकि कृतज्ञतापूर्ण मानस महान् और प्रसन्न मानस होता है।' मानव पर तीन के ऋण दुष्प्रतीकार्य __ जैसा कि मैंने पहले कहा था, यों तो प्राणिमात्र के उपकारों से मनुष्य उपकृत होता है और उसे उन उपकारों का बदला चुकाना चाहिए, लेकिन जैनशास्त्र स्थानांग सूत्र में तीन विशेष उपकारियों के मानव पर बहुत बड़े और दुष्प्रतीकार्य (बड़ी कठिनता से उऋण हो सकें ऐसे) ऋण बताये हैं । वे इस प्रकार हैं ___"तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो! तं जहा–अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स ।" भगवान् ने कहा-आयुष्मान् श्रमणो ! तीन का ऋण दुष्प्रतीकार्य है, यानी उनसे उऋण होना दुःशक्य है -(१) माता-पिता का (२) भर्ता-पालन-पोषण करने या आजीविका देने वाले का एवं (३) धर्माचार्य का। पहला ऋण सन्तान पर माता-पिता का है, जो उसका बड़े कष्ट से पालन १ देखिए वाल्मीकि रामायण में न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया। कथञ्चिदुपकारेण कृतेनकेन तुष्यति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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