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________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २१५ पोषण करके उस पर महान् उपकार करते हैं । श्रवणकुमार की तरह माता-पिता की आजीवन सेवा करने पर भी उनके ऋण से उऋण होना दुष्कर होता है । दूसरा ऋण उस स्वामी या सेठ का है, जिसने अपने मुनीम - गुमाश्ते या कर्मचारी को आजीविका देकर पाल-पोसकर बड़ा किया, योग्य, सम्पन्न और कार्यदक्ष बनाया । और तीसरा दुष्प्रतीकार्य ऋण है - धर्माचार्य या गुरुजन का, जो व्यक्ति को ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से सम्पन्न करके उसका जीवन-निर्माण करते हैं । अधर्म से बचाकर धार्मिक पथ पर प्रेरित करते हैं । वह साधक उनकी श्रद्धाभक्ति एवं आदरपूर्वक सेवा करता हुआ भी सहसा उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता । निष्कर्ष यह है कि इन तीनों के असंख्य उपकार मनुष्य पर हैं । उन उपकारों का बदला चुकाना बड़ा ही कठिन होता है । राजस्थान का प्रसिद्ध सटोरिया श्री गोविन्दराम सेक्सरिया जब पहले पहल बम्बई गया तो उसे एक धर्मशाला के ट्रस्टी ने आठ आने रोज पर रख लिया, किन्तु लिखना पढ़ना न आने के कारण आठ आने देकर विदा किया, किन्तु उसकी दयनीय दशा पर ध्यान देकर सेठ ने उसे एक रुपया दिया । इस रुपये से उसने दस दिन काम चलाया । ग्यारहवें दिन सट्टा बाजार में एक सेठ के यहाँ कागज पत्र पहुँचाने के काम पर रह गया । कुछ ही वर्षों में वह बहुत बड़ा सटोरिया बन गया और सफल व्यापारी भी । एक बार किसी सार्वजनिक संस्था के लिए सहायता लेने एक युवक आया, संस्था का नाम बताया तो तुरन्त एक लाख रुपये दे दिये । उस युवक ने अपने पिता से कहा तो दूसरे दिन पिता-पुत्र दोनों उसकी दूकान पर आए तो उन्हें एक लाख रुपये और दे दिये । जब उक्त सेठ ने उस व्यापारी को मानपत्र देने, उसका भाषण कराने का कहा तो उसने निःस्पृहता से इन्कार करते हुए कहा - " सेठ साहब ! यह सब करने की जरूरत नहीं है । मैंने तो कुछ किया नहीं है, सिर्फ आपके महान् उपकार का बदला चुकाया है ।" यों कहकर उस व्यापारी ने अपनी पहले की रामकहानी सुनाई, जिसमें उनके द्वारा अत्यन्त विपन्न एवं असहाय अवस्था में की गई डेढ़ रुपये की सहायता का वर्णन था । इतना ही नहीं, उसने अपने नाम की तख्ती लगवाने से भी इन्कार कर दिया । यह तो हुआ सेठ के सामान्य उपकार का बदला चुकाने का उदाहरण ! कई लोग किसी व्यक्ति को अत्यन्त गरीबी अवस्था में अपने पुत्र की तरह पाल-पोसकर बड़ा करते हैं । उनके उन महान् उपकारों का बदला भी कई भाग्यशाली कृतज्ञतावश चुकाते हैं । एक गाँव में एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा। गाँव के महाजन गाँव छोड़कर परदेश जाने को तैयार हुए । वणिक का छह-सात वर्ष का एक छोटा-सा अनाथ बच्चा था, जिसके माता-पिता मर चुके थे, उसे भी उन्होंने साथ ले लिया । लेकिन बच्चा खाने को पूरा न मिलने से रोता चिल्लाता और मचल जाता । अतः तंग आकर उन महाजनों ने इस लड़के को एक शहर में वहाँ के प्रमुख परोपकारी व्यापारी को सौंप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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