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________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २०७ हैं, और मनुष्यों को अमृत तुल्य जल देते रहते हैं, क्योंकि सज्जन अपने किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते । जब मिट्टी, वनस्पति, हवा, आकाश, जल आदि मनुष्य पर अगणित उपकार करते रहते हैं, तब मनुष्य ही क्यों कृतघ्न बनकर उपकार करने से विमुख होता रहता है ? यही कारण है कि पण्डितराज जगन्नाथ एक अन्योक्ति द्वारा मनुष्य को कृतज्ञ बनने और कृतघ्नता छोड़ने की प्रेरणा देते हैं भुक्ता मृणालपटली भवता न्यम्बूनि यत्र नलिनानि रे राजहंस ! वद तस्य कृत्येन केन भवितासि निपीता निषेवितानि । सरोवरस्य, कृतोपकार: ? एक राजहंस से कवि कहता है- "अरे राजहंस ! जिस सरोवर में रहकर तूने उसका पानी पीया था, उसके कमलों तथा कमल की डंडियों का सेवन किया था, बता, कौन-सा कार्य करके उस सरोवर के उपकार से उऋण होगा ?" वास्तव में कृतज्ञ बनने की कितनी अद्भुत प्रेरणा है । कृतघ्न बनने से क्या हानि, कृतज्ञ बनने से क्या लाभ ? इन सब कारणकलापों को देखते हुए मनुष्य को कृतज्ञ बनने की प्रेरणा मिलती है, किन्तु सवाल यह उठता है कि मनुष्य अगर कृतघ्न बना रहे या कृतघ्नता ही प्रकट करता रहे तो क्या हानि है ? बल्कि कृतज्ञता प्रकट करने के लिए जो समय, शक्ति और धन खर्च करना पड़ता है, वह बच ही जाता है । Jain Education International परन्तु यह तर्क निष्प्राण है । कृतघ्न बने रहने से दिखता है कि समय की बचत हो जाएगी, धन बचेगा, शक्ति का व्यय नहीं करना होगा, किन्तु यह भ्रान्ति है । दीर्घकाल की जीवन-यात्रा में कई ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं, जबकि दूसरों से उपकार लेकर उपकृत होना अनिवार्य हो जाता है । यों तो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त असंख्य प्राणियों का उपकार हम जाने-अनजाने ले रहे हैं, भले ही वे बिना किसी प्रत्युपकार की आशा से हमारे प्रति उपकार करते हों, चाहे वे हमें अपनी सेवाएँ फ्री देते हों, बदले में कुछ न लेते हों, परन्तु हमें तो उन प्राणियों या मानवों के उपकारों का बदला अवश्य चुकाना चाहिए, अन्यथा वह ऋण हम पर चढ़ा रहेगा, वह हमारी नमकहरामी होगी । कृतघ्न बनने से सबसे पहली हानि यह है कि उस कृतघ्न के जीवन में तो परोपकार की वृत्ति रुक ही जाती है, उसके कृतघ्न बन जाने से जो लोग परोपकार करते हैं, वे भी यह सोचकर रुक जाते हैं कि पता नहीं, जिनका हम उपकार करते हैं, वे हमारे प्रति कृतज्ञता प्रगट करेंगे या नहीं ? इस प्रकार परोपकार की परम्परा समाप्त हो जाती है । समाज में हर एक व्यक्ति जरूरतमंद कृतज्ञ सज्जन को भी दुःख For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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