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________________ २०८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ से पीड़ित देखकर शंका की दृष्टि से देखने लगता है। एक पाश्चात्य विचारक पब्लियस सीरस (Publius Syrus) भी इन्हीं विचारों का समर्थन करता है "One ungrateful man does an injury to all who stand in need of aid.” ___“एक कृतघ्न व्यक्ति उन सबको हानि पहुँचाता है, जो किसी सहायता की आशा से खड़े हैं।" ___वास्तव में कृतघ्न को देखकर परोपकारी व्यक्ति का दूसरों के प्रति भी परोपकार करने का उत्साह नष्ट हो जाता है । वह सोचने लगता है कि इसका मैंने उपकार किया, लेकिन इसने मेरा अहसान मानने के बदले नीच बनकर कृतघ्नता धारण कर ली, सम्भव है, दूसरे भी ऐसे ही निकलें, क्यों व्यर्थ ही अपना समय, श्रम और शक्ति व्यय करूँ ! सचमुच ऐसे कृतघ्न परोपकार-पथ के डाकू हैं, जिनके कारण सब पर से विश्वास उठ जाता है। ____ कृतघ्न बन जाने से दूसरी हानि यह है कि उस कृतघ्न का चेप दूसरे को लगता है। उसकी उक्त कृतघ्नता देखकर वह अकसर यह सोचने लगता है कि जब यह कृतज्ञता नहीं दिखलाता तो मुझे उसका उपकार क्यों करना चाहिए ? मुझे उसे कुछ क्यों देना चाहिए ? वर्तमान युग में समाज में प्रायः इसी प्रकार की प्रणाली चल रही है, लोग. दोन या परोपकार के बदले में सर्वप्रथम धन्यवाद ही नहीं, सम्मान, अभिनन्दन, प्रतिष्ठा और यशःकीर्ति भी चाहते हैं। वास्तव में ऐसा करना सौदेबाजी है और इससे व्यक्ति में दूसरों के प्रति मैत्री और बन्धुत्व की भावना का ह्रास होता है । प्रसिद्ध पाश्चात्य लेखक सेनेका (Seneca) तो इस बारे में स्पष्ट कहता है ___ "It is another's fault if he be ungrateful, but it is mine if I do not give. To find one thankful man I will oblige a great many that are not so." - 'यह दूसरे की गलती है कि वह अकृतज्ञ (कृतघ्न) होता है, किन्तु यह तो मेरी गलती है कि मैं दूसरे को नहीं देता, इसका मतलब है, एक कृतज्ञ मनुष्य को पाने के लिए मैं उन बहुत-से लोगों को बाध्य कर दूंगा, जो वैसे नहीं है।' कृतघ्न बन जाने पर मनुष्य सामाजिक या धार्मिक नहीं रहता, क्योंकि समाज और धर्म के प्रति उसके मन में घृणा पैदा हो जाती है। वह अपने समाज, धर्म और राष्ट्र के द्वारा किये गये उपकारों को भुला देता है और इनके प्रति द्रोह करने लगता है, इनके प्रति विद्रोही एवं प्रतिक्रियावादी बन जाता है। इससे उसकी व्यावहारिक क्षति तो है ही, आध्यात्मिक क्षति भी कम नहीं होती। उसकी आत्मा में उदारता, परमार्थ, मैत्री, विश्वबन्धुता, आत्मौपम्य, एवं आत्मा के अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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