SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते १६६ भी न दिखाना, और न ही उपकारी का किसी प्रकार का गुणगान करना, और न उपकारी का प्रत्युपकार (समय आने पर) करना कृतघ्नता कहलाती है। ऐसी कृतघ्नता की वृत्ति जिसमें हो, वह कृतघ्न कहलाता है । गिरिधर कविराय ने एक कुण्डलिया में कृतघ्न के जीवन का परिचय संक्षेप में दे दिया है कृतघन कबहुं न मानहीं, कोटि करै जो कोय । सर्वस आगे राखिये, तऊ न अपनो होय ॥ तऊ न अपनो होय, भले की भली न माने । काम काढि चप रहै, फेरि तिहि नहिं पहिचाने । कह गिरिधर कविराय, रहत नित ही निर्भय मन । मित्र शत्रु सब एक, दाम के लालच कृतघन ॥ कृतघ्न व्यक्ति हृदय का इतना कठोर होता है कि दूसरा व्यक्ति उस पर दुःख या विपत्ति पड़ने पर चाहे करोड़ों उपकार कर दे, चाहे अपना सर्वस्व तन, मन और धन लगा दे, तो भी वह उस उपकारी का अपना नहीं होता, वह सदैव दूसरों को स्वार्थी, मतलबी, अपने किसी प्रयोजन से सहायता देने वाले, चापलुस, कपटी, अपना काम बनाने के लिए मीठा बोलने वाले या अपने में किसी दुर्गुण या कमजोरी के कारण उसे सहायता देने वाले मानता है । वह किसी भी उपकारी को उपकारी नहीं कहेगा, न मानेगा। कदाचित् कभी किसी कारणवश किसी विपत्ति में फंस गया तो किसी समर्थ व्यक्ति से अपना काम निकलवा लेगा, किन्तु बाद में तुरन्त आँखें फेर लेगा, तर्ज बदल देगा, कदाचित् उपकारी पुरुष घर पर आ गया या रास्ते में कहीं मिल गया तो भी वह उसे नहीं पहिचानने का डौल करेगा। कृतघ्नी पुरुष जब स्वयं समर्थ, सम्पन्न और सशक्त हो जाता है, तब वह अपनी पहले वाली स्थिति में सहायता करने वाले का स्मरण या चिन्तन नहीं करता। कदाचित् किसी प्रसंग पर वह किसी मतलब से याद करता है या कोई उसे याद दिला भी देता है तो वह उद्दण्डतापूर्वक कह देता है-"अजी ! जिस समय हम दुःख की भट्टी में तप रहे थे, उस समय सभी यारदोस्त, स्वजन-परिजन सुख-शय्या पर पड़े गुलछरें उड़ा रहे थे, किसी ने भी हमें नहीं पूछा। हम तो अपने पुरुषार्थ और भाग्यबल पर आगे बढ़े हैं। हमारी तकदीर तेज न होती तो कौन हमें आगे बढ़ा सकता था ? आज हमारे पास दो पैसे हो गए हैं, समाज में हमारी इज्जत बढ़ी है। कई सभा-सोसाइटों में उच्च पद भी मिल गया है, तब सब लोग पूछते हैं । उस समय मुझे कौन पूछता था ?" इस प्रकार अपने उपकारी माता-पिता, मित्र, स्वजन, सज्जन, गुरुजन आदि सबको धता बताकर कृतघ्न अपने अहंकार के गजराज पर चढ़कर छाती फुलाए बेधड़क घूमता है, उसके लिए शत्रु और मित्र, दुर्जन और सज्जन, स्वजन और परजन सभी एक सरीखे हैं। वह स्वार्थ और लोभ का चश्मा चढ़ाए रहता है, इसलिए उसकी दृष्टि में तमाम दुनिया स्वार्थी और लोभी प्रतीत होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy