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कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
___ आज मैं आपके समक्ष एक ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ, जो अपने आप में तो त्याज्य है ही, परन्तु ऐसा जीवन जीने वाले व्यक्ति को उसके हितैषी छोड़ देते हैं। उसके साथ रहना नहीं चाहते, न उसके साथ कोई लेन-देन का व्यवहार या सहकार करना चाहते हैं। ऐसा निकृष्ट एवं अधम जीवन है-कृतघ्न जीवन । गौतम कुलक का यह सत्ताइसवाँ जीवनसूत्र है, जिसमें महर्षि गौतम ने बताया है
'चयंति मित्ताणि नरं कयग्छ' 'कृतघ्न अनुष्य को मित्र-हितैषीजन छोड़ देते हैं।' कृतघ्न कौन और कैसे ?
आपके मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता होगा कि कृतघ्न किसे कहते हैं ? और मनुष्य कृतघ्न किन कारणों से हो जाता है ? कृतघ्न की वास्तविक पहिचान क्या है ? संस्कृत-व्याकरण के अनुसार कृतघ्न का अर्थ होता है
'कृतमुपकारं हन्तीति कृतघ्नः' 'जो अपने पर दूसरों के द्वारा किये हुए उपकार का हनन कर देता है, वह कृतघ्न है ।' साँप के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह दूध पिलाने वाले अपने उपकारी को काटने की चेष्टा करता है, इसी प्रकार दुष्ट कृतघ्न उपकारी के द्वारा किये हुए उपकार को भूलकर उसी की हानि करने की चेष्टा करता है।'
साँप तो कदाचित् उपकारी को पहचान कर उसका प्रत्युपकार भी कर देता है, किन्तु कृतघ्न मनुष्य तो साँप से भी बढ़कर निष्कृष्ट होता है। किसी के द्वारा किये गए उपकार को भूल जाना, उपकारी का उपकार न मानना, धन्यवाद देकर उपकारी के प्रति धन्यवादसूचक शब्दों से भी कृतज्ञता प्रगट न करना, विनय-नम्रता
१ देखिए सुभाषितरत्न भाण्डागार में कृतघ्न का लक्षण
कृतमपि महोपकारं पय इव पीत्वा निरातंकः । प्रत्युत हन्तु यतते काकोदरसोदरः खलो जगति ॥
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