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________________ २०० आनन्द प्रवचन : भाग ६ वास्तव में कृतघ्न व्यक्ति दूसरों के गुण ग्रहण नहीं करता, उसकी दृष्टि में दूसरों के दोष ही नजर आते हैं। वह दूसरों के द्वारा कृत उपकारों को स्मृति से बिलकुल ओझल कर देता है । ऐसा करके वह अपने सिर पर उपकारों और एहसानों का बहुत बड़ा कर्ज या ऋण चढ़ा लेता है। इस जन्म में वह कृतघ्नता के कारण उस ऋण को नहीं चुका पाता, तो अगले जन्मों में तो उसे चुकाना ही पड़ता है, चाहे बह समझ-बूझकर हँसते-हँसते चुकाए, चाहे किसी के दवाब से रो-रोकर चुकाए। एक पेड़ को माली ने अपने श्रम से सींच-सींचकर बड़ा किया था। जब वह बड़ा हुआ तो उसमें सुगन्धित फूल आए, वह फलों से लदकर और पत्तों और शाखाओं के भार से बहुत उन्नत हो गया। अब भौंरे आकर उस पर गुंजार करने लगे, पक्षी आकर उस पर चहचहाने और बसेरा करने लगे। पेड़ को अपनी समृद्धि का गर्व हो गया। वह अपने पुराने उपकारी माली को भूल गया। इसी प्रसंग को लेकर कवि दीनदयाल गिरि एक अन्योक्ति द्वारा कृतघ्नों को प्रेरणा देते हुए कहते हैं वा दिन की सुधि तोहि को, भूल गई कित साखि? . बागवान गहि घूर तें, ल्यायो गोदी राखि ॥ ल्यायो गोदी राखि, सींचि पाल्यो निज कर तें। भूलि रह्यो अब फूलि, पाय आदर मधुकर तें॥ बरनै दीनदयाल, बड़ाई है, सब तिनकी। तू झूमे फलभार, भूलि सुधि को वा दिन की ॥ कवि ने कितने गहन सत्य-तथ्य को अन्योक्ति द्वारा उजागर कर दिया है ! वास्तव में, जिस व्यक्ति में कृतघ्नता आ जाती है, वह चाहे कितना ही सम्पन्न क्यों न हो जाए, चाहे उसमें कुछ गुण भी क्यों न हो, वह लोगों की दृष्टि में अधम, निकृष्ट और पापी समझा जाता है, एक कृतघ्नता ही उसके सभी गुणों पर पानी फिरा देती है । एक पाश्चात्य विचारक ब्रूक (Brooke) के शब्दों में देखिए "If there be a crime of deeper dye than all the guilty train of human vices, it is ingratitude." 'मानवीय बुराइयों के तमाम अपराधी परिचरों के बजाय संसार में अगर कोई गहरे रंग का अपराध है तो वह है-अकृतज्ञता-कृतघ्नता।' जब मानव-जीवन में कृतघ्नता आती है तो उसमें अहंकार, झूठ, क्रोध, माया (कपट), एवं स्वार्थ आदि सभी दोष धीरे-धीरे प्रविष्ट हो जाते हैं, फिर उसकी जगत् के प्राणियों के प्रति ही नहीं, परमात्मा के प्रति भी श्रद्धा खत्म हो जाती है। कृतघ्नता एक प्रकार का तीव्र विष है, जो अमृत-सम सभी गुणों को जहरीला बना देता है । उसके रहते कोई भी गुण विश्वसनीय नहीं रहता । कृतघ्न व्यक्ति में सत्य, दया, क्षमा, सेवा, नम्रता, शील, अचौर्य आदि कोई भी गुण विश्वसनीय नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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