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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २ १८६ वदन होकर बैठ जाओ और वह तुम्हारे सारे शरीर पर अपनी दृष्टि फिरा दे तो तुम्हारा शरीर वज्रमय हो सकता है। फिर तो तुम अजेय हो जाओगे । कोई भी प्रहार तुम पर असर नहीं कर सकता।" दुर्योधन बोला-"यह उपाय तो मेरे घर में ही है।" युधिष्ठिर-"तो जाओ और इस उपाय को कर देखो।" दुर्योधन खुशी के मारे नाचता हुआ माता गांधारी के पास पहुँचा । श्रीकृष्णजी के कहने से उसने अपने गुप्तांग पर कमलपत्र लगा लिये और बाकी के सब अंग खोल कर माताजी के सामने बैठ गया। - आगे की कहानी लम्बी है । उससे यहाँ कोई मतलब नहीं । यहाँ तो सिर्फ यही बताना है कि दुर्योधन जैसे कट्टर शत्रु को भी सत्यवादी युधिष्ठिर ने सच्ची विचारणा व सलाह दी, क्योंकि वे यह जानते थे कि मेरा उपादान शुद्ध होगा तो कोई भी निमित्त कुछ भी बाल बांका नहीं कर सकेगा। सत्यविचार का यह एक पहलू है, जो जीवन को समृद्ध बनाता है। सत्यविचार का दूसरा पहलू है- समाज में प्रचलित कुरूढ़ियों, कुरीतियों, कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों एवं मूढ़ताओं के चक्कर में नहीं पड़कर सत्यनिष्ठ सत्यविचार करता है । वह सत्यविचार पर अन्त तक टिका रहता है। लोग उसकी पूरी कसौटी करते हैं, लेकिन वह इस कसौटी में खरा उतरता है। एक व्यक्ति सत्य बोलता है, लेकिन विकासघातक, अन्धश्रद्धापोषक, हिंसक एवं खर्चीली अहितकर कुरूढ़ियों या कुरीतियों में फंसा है, उसे हम सत्यनिष्ठ नहीं कह सकते । अतः उसके लिए सत्यविचार का होना बहुत आवश्यक है। सत्यविचार से ही उसकी बौद्धिकश्री बढ़ती है, जिससे वह समाज में अशान्तिवर्द्धक असंतोषजनक नाना समस्याओं को मिनटों में हल कर देता है । यही विचार समृद्धि उसके जीवन-वैभव को बढ़ाती है। इस प्रकार का सत्यविचारमय जीवन एवं मंगलमय विभूति बन जाता है । अब आइए, सत्यनिष्ठ की श्रीवृद्धि में कारणभूत चौथे स्रोत की ओर। वह है-सत्य-आचार । सत्य-आचार का मतलब है-आचरण में सत्यता । 'करण सच्चे' का रहस्य यही है। वास्तव में जो अपने मन-वचन-काया को एक करके प्रवृत्ति करता है, वही सत्य-आचरण है । सत्य आचरण से व्यक्ति का जीवन पवित्र, निर्भय, शुद्ध एवं मनोबलयुक्त बनता है। ऐसे सत्याचरणी व्यक्ति का जीवन विश्वसनीय एवं एक दिन अपार श्री से युक्त बन जाता है। जीते-जी उसकी यश-कीर्ति उसे अमर बना देती है। गुजरात के एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति का उदाहरण लीजिए-- धोराजी-निवासी मेमणकुल के खानुमूसा उस समय लगभग ३५ साल के थे, वे बड़े निर्धन और फटेहाल थे, किन्तु थे बड़े ही कुलीन, सत्यपरायण एवं धार्मिक । वे एक बार बाघणिया से बगसरा जा रहे थे। सहसा रास्ते में उन्हें एक जगह गिरा हुआ चमड़े का वजनदार बटुआ मिला। हाथ से उठाकर खोला तो मन को सहसा आघात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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