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________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग ६ लगा; क्योंकि उस बटुए में कोई साधारण चीज नहीं थी । किन्तु सोने के हार, कण्ठी, बाजूबंद आदि गहने थे, जिनमें रत्न, माणिक्य, हीरा, पन्ना, पुखराज आदि जड़े हुए थे । एक बार तो इतने बहुमूल्य आभूषण देखकर किसी भी व्यक्ति का मन विचलित हो सकता था, लेकिन सत्य पर दृढ़ नीतिमान खानुमूसा के दिल में इस कीमती माल को हजम करने या अपने कब्जे में करने का जरा भी विचार नहीं आया । अन्यथा, ऐसी दरिद्रता में बड़े-बड़े सत्य महारथी, नीतिपरायण पुरुष डिग जाया करते हैं । बल्कि उन्होंने तुरन्त प्रभु से प्रार्थना की- “या पाक परवरदिगार खुदा ! मुझे अनीति -असत्य के नापाक विचारों एवं कृत्यों से बचाना । मुझे तो इसमें से एक अंशभर भी लेना सूअर के मांस खाने के समान है ।" दूसरे ही क्षण विचार आया- "मालूम होता है, किसी भाग्यशाली के ये गहने हैं और इस रास्ते से जाते हुए यह बटुआ गिर गया है । अतः वापस बाघणिया जाऊँ और इस बटुए का मालिक मिल जाए तो उसे सौंप दूं । न मिले तो बाघणिया गाँव के मुखिया को यह माल सुपुर्द कर दूं ।" 1 मुखियाजी को जब खानुमूसा ने यह गहनों से भरा बटुआ बताया तो उनके मन में लोभ की लहर व्याप्त हो गई । उन्होंने खानुमूसा से इशारे में कहा – “इसमें से आधा भाग तुम्हारा और आधा मेरा । बीता हुआ समय लौटकर नहीं आएगा । जिंदगीभर की दरिद्रता दूर हो जाएगी।" खानुमूसा ने खिन्न मन से सोचा- “मैंने कहाँ बिल्ली को दूध सौंपने जैसा काम कर दिया ?" फिर मुखियाजी से कहा- "अ मुखियाजी ! अगर इस माल को हड़पने की मेरी नीयत होती तो मैं बाघणिया तक लौटकर क्यों आता ? रास्ते में एक भी आदमी तो क्या चिड़िया भी नहीं मिली । इस बटुए का माल मैं अकेला ही नहीं हजम कर सकता था, आपको सौंपने क्यों आता ?" मुखियाजी बोले – “भाई ! थोथी बड़ाई मत हाँक । कपड़े देखते हुए बिलकुल गरीब मालूम होते हो, इसलिए मेरा कहना मानो, आजीवन सुखी रहोगे ।" यों कहकर मुखियाजी माल हजम करने का षड्यन्त्र रचने लगे । परन्तु खानुमूसा को सत्य से विचलित करना आसान काम न था । वह दृढ़ता के स्वर में बोला – “भाई ! अलबत्ता मैं गरीब हूँ, परन्तु अपने ईमान पर दृढ़ हूँ, मैं अपनी खानदानी पर जरा भी कलंक लगाना नहीं चाहता । मेरे भाग्य में धन होगा तो खुदा मुझे चाहे जिस रास्ते से दे देगा । " है, यों मान लो न !" माल खुदा का इसे हड़पने में मुखिया ने कहा - " यह भी खुदा ने ही दिया "नहीं, मुखियाजी ! यों रास्ते में पड़ा हुआ माना जा सकता । यह तो दूसरों की मालिकी का है । न सचाई है । हजार हाथ वाला चाहे जिस रास्ते से देगा; मगर इसमें से जरा-सा भी लेना मेरे लिए सूअर के मांस के समान है । आप इस झूठे लालच में न पड़ें, मुखियाजी !" यों कहकर वह बटुआ लेकर खानुमूसा फौरन वहाँ से चल पड़े और Jain Education International For Personal & Private Use Only दिया हुआ नहीं न तो नीति है, www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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