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________________ १८२ मानन्द प्रवचन : भाग ६ खर्च कर आए हो, उन्हें अपने पुण्यबल से वापस लेकर आओ, अन्यथा तुम्हारा यह कथन कोरा बकवास समझा जाएगा।" पिता की बात सुनकर स्वाभिमानी एवं सत्यप्रिय राजकुमार मकरध्वज उठा और वहाँ से चलकर ज्योंही नगरी के मुख्य द्वार के पास आया, त्योंही एक शृगाली की आवाज सुनी। उसे शुभशकुन मानकर अपने शकुनज्ञान के आधार पर यह जान लिया कि यहाँ जो बाँसों का भार रखा है, उसमें एक बाँस में चार रत्न हैं। अतः वही बाँस उठाकर राजकुमार ने उसे फाड़ा तो उसमें से चार रत्न निकले। यह सब पुण्यप्रभाव से मिला है, वह जानकर मकरध्वज राजमहल की ओर लौटने लगा। इतने में ही दिव्य संगीत की ध्वनि उसके कानों में पड़ी। वह उसी आवाज की दिशा में चला तो आगे एक यक्ष का देवालय आया; जहां एक मुनिवर की सेवा में एक देव ने आकर नाटक किया था, उसी का उपसंहार करके वह अभी जा रहा था। मुनिराज से सविनय पूछने पर उन्होंने उस देव का परिचय दिया । जो मृषावाद (असत्य) का त्याग करने के कारण देव बना था। अन्त में राजकुमार को उन्होंने उपदेश दिया कि "तुम में सत्य भाषण का जो गुण है, उस पर प्राणान्त तक दृढ़ रहना, चाहे प्राण चले जाएँ, असत्य कभी मत बोलना।" राजकुमार ने मुनिवर से सत्य-अणुव्रत पालन करने की प्रतिज्ञा ले ली और सन्तुष्ट होकर मुनि को वन्दन करके वह घर लौट गया । कुमार के चले जाने के पश्चात उस देव ने मुनि से पूछा- "मुनिवर ! यह राजकुमार प्राणप्रण से इस सत्यव्रत का पालन करेगा या डिग जाएगा ?" मुनि ने कहा-"यह प्राणान्त तक सत्य पर दृढ़ रहेगा।" इस पर उस देव ने राजकुमार की परीक्षा करने की ठानी। वह एक वस्त्र व्यापारी का वेष बनाकर राजसभा में घास का पूला लेकर आया और पुकार करने लगा-"राजन् ! मैंने एक बांस में चार रत्न रखे थे, उन्हें कोई चोर चुरा ले गया है । अतः उस चोर को पकड़वाकर उससे चोरी कबूल करावें ।" यह सुनकर राजा ने नगरी में ढिंढोरा पिटाया । ढिंढोरा सुनकर सत्यनिष्ठ राजकुमार मकरध्वज ने बांस में से निकाले हुए वे चारों रत्न लाकर सौंप दिये । लोगों ने कुमार से कहा- ''आपको रत्न निकालते किसी ने देखा तो नहीं है । अतः आप झूठ बोलकर ये रत्न बचा लीजिए । उसके पास कोई साक्षी तो है नहीं, क्या कर लेगा ?" परन्तु मकरध्वज ने कहा- “नहीं मुझसे ऐसा कदापि नहीं होगा। मेरे प्राण चले जाएँ, तो भी मैं असत्य नहीं बोलूंगा।" सत्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होने से वह देव प्रगट हुआ और प्रसन्न होकर उसने राजकुमार को श्रद्धाभक्ति से नमस्कार किया, उसके सत्य पर दृढ़ रहने की प्रशंसा की और स्वर्णवृष्टि करके वे चारों रत्न वापिस दिए । राजा मकरध्वज कुमार का यह पुण्यप्रभाव देखकर चकित हो गया। उसने मकरध्वज से अपने अपराध के लिए क्षमायाचना की। कहा-"पुत्र ! तुमने जो जो पुण्यातिशय की बात कही थी, उसे सत्य सिद्ध करके बता दी है। अतः मैं तुम्हारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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