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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १७३ होने लगती हैं । ऐसा होने पर सत्यनिष्ठ साधक बाह्य प्रयोजनों और साधनों को सहायक तो मानता है, परन्तु साध्य नहीं मानता, वह उनकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि वह मानता है कि अपना उपादान शुद्ध होगा तो निमित्त स्वतः दौड़-दौड़कर उसके पास आएँगे। सत्यनिष्ठ को साध्य विराट् पुरुष परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के जब दर्शन हो जाते हैं, तब उसके जीवन की दिशा ही बदल जाती है। वह जीने-मरने को एक सरीखा मानता है । सत्य के प्रकाश में जब उसका अन्तःकरण जगमगाने लगता है, तब उसकी दृष्टि में बाह्य आडम्बर, मान-सम्मान और यशकीर्ति का महत्त्व गिर जाता है । दूसरों पर अपना प्रभाव डालने और बड़प्पन दिखाने का भाव अब उसे तुच्छ प्रतीत होता है। उसके विचारों में श्रेष्ठता और जीवन में सादगी आने लगती है। मनुष्य को दिखावटीपन की ओर खींचने वाली महत्त्वाकांक्षाओं तथा लौकिक कामनाओं की विपुलता अब उसके जीवन में बिलकुल नहीं रहती। तुलसीकृत रामायण की इस चौपाई के अनुसार उसका जीवन बन जाता है तनु तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यवन्त कहँ तृन सम बरनी ॥ सत्यनिष्ठ पुरुषरत्न सर्वत्र आदर-सम्मान पाता है । सत्यनिष्ठ यह भलीभाँति समझता है कि मानवजीवन के सभी क्षेत्रों की सुव्यवस्था का आधार सत्य है। अगर सत्य नहीं होता है तो पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक एवं राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में अव्यवस्था एवं अविश्वास फैल जाता है, फिर इन क्षेत्रों की सुखशान्ति हवा हो जाती है। असत्य, धोखादेही, बेईमानी, बेवफाई, आदि से तो पारस्परिक विश्वास खत्म हो जाता है। पाश्चात्य विचारक 'इमर्सन' का कथन है "व्यापारिक जगत् में यदि विश्वास व्यवस्था का लोप हो जाए तो समग्न मानवसमाज का ढांचा ही अस्तव्यस्त हो सकता है।" ___ जब तक लोगों में पारस्परिक विश्वास नहीं होता, तब तक कोई भी किसी के साथ रोटी-बेटी का, जीवनयापन की सामग्री का, व्यावसायिक सौदे का आदान-प्रदान करने में हिचकिचाता है । असत्य के अन्धकार में जब तक किसी को वस्तु-स्थिति का यथार्थरूप से पता न चल जाए, तब तक भ्रमवश भले ही वे एक दूसरे से सम्पर्क कर लें या व्यवहार कर लें, लेकिन सत्य के सूर्य का प्रकाश होते ही परस्पर घृणा और. तिरस्कार, निन्दा और निरादर की परिस्थितियां आते देर नहीं लगती। इसीलिए सत्यनिष्ठ व्यक्ति सत्य का मन-वचन-काया से आचरण करता है, ताकि राष्ट्र, समाज और परिवार आदि में सुव्यवस्था बनी रहे, जिससे परस्पर विश्वास, सुखशान्ति, सहयोग, स्वस्थ चिन्तन एवं आदरभाव से सबका कार्य चले। सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने प्रति, अपनी आत्मा, समाज, राष्ट्र, परिवार एवं विश्व के प्रति, अपने कर्तव्यों और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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