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________________ १७४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ दायित्वों के प्रति मन-वचन-काया से सच्चा रहता है, इसके कारण वह इसी जीवन, इसी देह और इसी संसार में स्वर्गीय सुख प्राप्त करता है। उसके लिए सुख-शान्ति और साधन-संतोष की कमी नहीं रहती। न मिले तो भी वह आत्मसंतुष्ट रहता है। वह अपने स्वरूप में स्थिर रहकर आत्मलाभ जैसा सुख भोगता है, उसे बाह्य हानि-लाभ की कोई चिन्ता नहीं होती । उसका अन्तःकरण दर्पण की तरह निर्मल और मस्तिष्क प्रज्ञा की तरह सन्तुलित रहता है। वह न तो मानसिक द्वन्द्वों से त्रस्त रहता है, और न ही निरर्थक तर्क-वितर्कों से अस्त-व्यस्त । वह जो कुछ करता है—कल्याणमय करता है, जो कुछ सोचता है-विश्वहित की दृष्टि से सोचता है। असत्य के दोष से मुक्त सत्यनिष्ठ व्यक्ति के मन में कुकल्पनाओं का रोग फटक नहीं सकता। आदर्श की ओर उसकी दृष्टि रहती है, यथार्थ व्यवहार के धरातल पर उसके चरण उसे सत्य पर चलने में कहीं थकान, निराशा, द्वन्द्व, कुविकल्प, अशान्ति नहीं घेरती इसीलिए सत्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए सत्य का आचरण सहज है, स्वाभाविक है । वह किसी के दवाब से, भय से या प्रलोभन से प्रेरित होकर सत्याचरण नहीं करता । वह समझता है कि सारे जगत् का मूलाधार सत्य है । उसके बिना जगत् का एक भी व्यवहार चल नहीं सकता। सत्य के पालन से ही जगत् सुखी, स्वस्थ और व्यवस्थित रह सकता है । इसलिए वह सत्यबल का आश्रय लेकर जीवनयापन करता संसार में उन्हीं का सम्मान होता है, जिनके पास सत्यबल है। उन्हीं पर जनता की श्रद्धा होती है । जिनका आचरण, व्यवहार और संभाषण असत्य के सहारे टिका है, ऐसे लोग सभी की आँखों में गिर जाते हैं । हजारों वर्ष होने पर भी आज लोग सत्य हरिश्चन्द्र को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं, इसलिए कि सत्य की बलिवेदी पर उन्होंने अपना सर्वस्व चढ़ा दिया । उनका प्रण था चन्द टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार । __ पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार ।। सत्यनिष्ठा से लाभ सत्य मानव जीवन को महानता और उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँचाने वाला प्रशस्त और निरापद राजमार्ग है। इस पर निष्ठापूर्वक चलने वाले पथिक को किसी भी देश, काल एवं परिस्थिति में भय या संकट नहीं रहता सत्यनिष्ठा व्यक्ति को पापकर्म से विरत रखती है । वह ऐसा कोई भी अकरणीय कार्य नहीं करता, जिससे उसे किसी प्रकार का भय हो, दण्ड या बदनामी का डर हो । वह अपने सत्यव्यवहार और सत्य-आचरण से जनता का विश्वासभाजन बन जाता है । सत्यार्थी पर विपत्ति आ भी जाए तो वह उससे डरता नहीं, विपत्ति को सम्पत्ति में बदल देने की क्षमता उसमें होती है, जनता भी उसकी सत्यनिष्ठा से सन्तुष्ट होकर विपत्ति या संकट के समय सहयोग देती है और सत्याधिष्ठित देवता भी उसकी तमाम समस्याओं को सुलझा देते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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