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________________ १७२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ पेक्ष बन जाता है कि उसे अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं की अपेक्षा या चिन्ता नहीं सताती। वह सत्यपालन में मानवजीवन की सार्थकता समझता है। जीवन में जहाँ शिष्टता, नम्रता, उदारता, शील आदि गुणों को आवश्यक बताया गया है, वहाँ सत्यता को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। वास्तव में सत्य का ही ध्यान और गान (चिन्तन-मनन) करने वाला, सत्य की परख, उसका यथार्थ ग्रहण और बखान करने वाला एवं सत्य का दर्शन–अनुभव करने वाला ही सत्य स्वरूप परमात्मा को जान सकता है। प्रसिद्ध सगुणभक्त अब्दुर्रहीम खानखाना का यह दोहा सत्यनिष्ठ के जीवन में अंकित हो जाता है साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदै सांच है, ताकै हिरदै आप ॥ सत्य से बढ़कर कोई तप,जप, नियम, संयम नहीं है। जिसके हृदय में सत्य बैठ जाता है, उसके हृदय से समस्त पाप, दोष, मलिनताएँ निकल जाती हैं, हृदय निर्मल हो जाता है, जिसमें परमात्मा (शुद्ध आत्मा) विराजमान हो जाता है । __ मनुष्य ईंट, पत्थर-चूने के बने हुए मन्दिरों में जाकर भगवान् की पूजा करता है, लेकिन सत्यनिष्ठ अपने हृदय मन्दिर में ही सत्यभगवान् को प्रतिष्ठित करके उनकी पूजा करता है । वह सत्य का आचरण करता है, यही सत्य की पूजा है । सत्य का आचरण ही उसके लिए आन, मान, शान, प्रभुवर का गुणगान और उनके गौरव का आह्वान है । सत्य ही उसके लिए रत्न का प्रकाश है और सत्य ही सुख है। सत्य के अदभुत प्रकाश से उसका व्यक्तित्व चमक उठता है, उसका निर्मल यश चारों ओर फैल जाता है । सत्य ही उसके और संसार के जीवन का आधार है। स्थूलबुद्धि लोग अपने पाप-कलुष धोने और पुण्योपार्जन करने के लिए बाह्य यज्ञ और गंगा आदि नदियों में स्नान करते हैं, लेकिन सत्यार्थी सत्यव्रतपालन रूप महायज्ञ करके एवं सत्य की पावन गंगा में अवगाहन करके अपने अन्तःकरण को शुद्ध और निष्कलंक बना लेता है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थ महाभारत में स्पष्ट बताया है अश्वमेधसहस्र च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्रादि सत्यमेव विशिष्यते ॥ "तराजू के एक पलड़े में एक हजार अश्वमेध यज्ञों का फल रखा गया और दूसरे पलड़े में एक सत्य के फल को, तो भी हजार अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा भरी रहा।" - सत्यार्थी पुरुष सत्य की आग में तपकर सोने-सा खरा बन जाता है । वह अपने जीवन में जितना अधिक सत्यता का समावेश करता जाता है, उतनी ही अधिक उसे विराट् पुरुष की अनुभूति होने लगती है । वह समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है । इससे उसकी दृष्टि अन्तर्मुखी हो जाती है, आत्मिक महानताएँ उसमें विकसित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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