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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १७१ wooing of it; secondly, the knowledge of it, which is the presence of it; and thirdly, the belief, which is the enjoyment of it." " सत्य में तीन भाग महत्त्वपूर्ण हैं - यहला है परिपृच्छा या जिज्ञासा जो इसके सम्बन्ध में जानकारी की याचना करना है । दूसरा है— इसका ज्ञान, जो कि सत्य का सान्निध्य है, और तीसरा है- विश्वास, जो कि सत्यप्राप्ति का आनन्द है । " असत्यवादी में ये सत्य के तीनों भाग होने कठिन हैं, उसमें सत्य की जिज्ञासा और सत्य के प्रति विश्वास होना कठिन है । ये ही कुछ मुद्दे हैं, जिससे सत्यनिष्ठ असत्यवादी से पृथक् करके पहचाना जा सकता है । सत्यनिष्ठ सत्य का आचरण क्यों करता है ? अब प्रश्न यह होता है कि सत्यनिष्ठ को कई बार अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है, अपनी जान को जोखिम में डालकर वह सत्य बोलने का प्रयास करता है, इससे उसे मिलता क्या है ? बल्कि सुकरात जैसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति को अन्त में जहर का प्याला पीना पड़ा, महात्मा गांधी को गोली खानी पड़ी और भी अनेक सत्यनिष्ठ व्यक्तियों को अपने परिवार स्वजन - स्नेहियों का वियोग सहना पड़ा, अनेक मुसीबतें उठानी पड़ीं । सत्यनिष्ठ के लिए सत्य ही एकमात्र निरपेक्ष कसौटी है, उसी पर कस करके वह प्रत्येक निर्णय करता है । कार्याकार्य, हिताहित, या प्राप्तव्य - अप्राप्तव्य ज्ञान का निर्णय भी वह सत्य की दृष्टि से करता है, जो अचूक और स्थायी होता है । सत्यनिष्ठ को सत्यपालन, सद्ज्ञान प्राप्ति और सत्यनिष्ठा का जो आनन्द मिलता है, उसके आगे बाह्य विषयानन्द का कोई मूल्य नहीं है । न ही सत्यपालन के पीछे सत्यनिष्ठ की प्राणों या धनादि पर मोह-ममत्व रखकर उन्हें बचाने की होती है । बाह्य ज्ञान या बाह्य आनन्द सत्यार्थी की दृष्टि में गौण हैं । 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार ऐसा सत्यार्थी सत्य को अनन्त ज्ञान एवं ब्रह्म की प्राप्ति का स्रोत मानता है । उसे सत्य को पाकर असीम आनन्द मिलता है । असत्य का आचरण करते हुए बार-बार जन्ममरण करने, अप्रतिष्ठित और निन्द्य जीवन बिताने और कुगतियों या कुयोनियों में कष्ट तथा अज्ञानमय जीवन जीने की अपेक्षा वह सत्याचरण करते हुए मृत्यु का सहर्ष वरण करना अच्छा समझता है । वह मृत्यु केवल शरीर की होती है, जो कि अनिवार्य है, मगर उसकी आत्मा सत्यपालन से अमर हो जाती है, अनेक गुणों से समृद्ध और यशस्वी हो जाती है, उसे फिर बार-बार जन्ममरण की यातना और निन्द्य एवं अज्ञानमय जीवन की विडम्बना नहीं सहनी पड़ती । सत्यनिष्ठा से उसका जीवन तेजस्वी, निर्भीक और प्राणादि के मोह से निर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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