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आनन्द प्रवचन : भाग ६
मैंने सुना है एक मुनि के पास गुप्तचर विभाग का एक भाई कई दिनों तक लगातार प्रतिदिन आने लगा । उसने अपने जीवन की बहुत-सी बातें बताई और मुनि जी से सुनी भी । उसकी बात करने का ढंग बड़ा ही रोचक और आकर्षक था । उसके चले जाने के बाद मुनिजी के मन में विचार आया- 'यह इतनी छप्परफाड़ बातें कहता है, ये सत्य हों, इसमें सन्देह है । परन्तु साथ-साथ उसके असत्य बोलने का कोई प्रयोजन भी तो नहीं था । धीरे-धीरे मुनियों को लगा - वह पौने सोलह आने असत्य बोलता है । पर हम साधुओं के पास वह क्यों आता है, क्यों इतनी निरर्थक बातें करता है ? यह एक कुतूहल का विषय था । बहुत दिनों के सम्पर्क के बाद एक दिन उन मुनिजी ने पूछ ही लिया – “भैया ! तुम्हारी बातें सारी की सारी असत्य निकलती जा रही हैं । तुम्हारा इस प्रकार असत्य बोलने का प्रयोजन क्या है ?" उसने अत्यन्त स्वाभाविक रूप से कहा – “मैं गुप्तचर (सी. आई. डी. ) विभाग में काम करता हूँ । मेरी तो निपुणता ही असत्य का अभ्यास करने में है ।"
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तब उन साधुओं ने समझ लिया कि यह आदमी असत्य का अभ्यास करने के लिए हमारा समय खराब करने आता है ।
वास्तव में ऐसे सरासर असत्यवादी की समाज या परिवार में कोई इज्जत नहीं होती । एक बार असत्य जीवन में दृढ़ होने के बाद उसे जड़मूल से निकालना बड़ा कठिन होता है ।
असत्य भरा होगा,
कई लोग दूसरों के प्रति भले बनने के लिए जहाँ सत्य कहना चाहिए, वहाँ मौनावलम्बन कर लेते हैं। उनसे पूछने पर वे तपाक से कह बैठते हैं — “थोड़ा-सा सत्य बोलकर कौन इस आदमी से दुश्मनी मोल ले ?" कुछ लोग ऐसे होते हैं कि श्रोताओं को धोखे में डालने के लिए या तो चिकनी-चुपड़ी बात करेंगे, जिनमें या फिर वे मौन रहकर इशारों से असत्य चेष्टाएँ करेंगे, अथवा द्वयर्थक शब्द बोलेंगे, जिससे सुनने वाला कुछ और समझे और कहने वाला किसी और अर्थ में कहे । ऐसे लोग उलझन भरा सवाल पूछे जाने पर सीधा सरल समझ में आने योग्य उत्तर न देकर ऐसा असत्य मिश्रित उत्तर दे देते हैं कि सामने वाला चक्कर में पड़ जाता है । जैसे किसी ने किसी व्यक्ति को एक उपवास करते देखकर कहा – “धन्य हो, आपको ! आप बड़े तपस्वी हैं !" तब उसका निषेध न करके यों उत्तर दे देते हैं- "हाँ भाई ! तपस्या तो हम ही लोग करते हैं न ?"
मनुष्य असत्य क्यों बोलता है ? इसलिए कि सत्य बोलने से शरीर को कष्ट सहना पड़ेगा, मार भी खानी पड़ेगी, शायद नुकसान भी सहना पड़े । इस प्रकार के डर से वह सत्य का द्रोह करता है । मनुष्य जब सत्य की अपेक्षा शरीर को, सुरक्षा को,. समाज को या प्रतिष्ठा को श्रेष्ठ समझता है, तब सत्य को छोड़कर असत्य का संहारा लेता है, सत्य का द्रोह करता है । ऐसा करके वह अपनी आत्मा को अपमानित करता है । ऐसा व्यक्ति सत्ता, धन, स्वार्थ के लिए तथा दूसरों पर अधिकार करने के लिए
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