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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १६७ जाकर सो जाने को कहा । सत्य पर दृढ़ उस सिपाही के मन में कोई भय या खेद नहीं था । बल्कि उसे सत्यनिष्ठ होकर अपने कर्त्तव्य पर डटे रहने का हर्ष था । इधर वॉयसराय के चिन्तन ने नया मोड़ लिया । रह-रहकर सिपाही की निर्भीकता एवं निष्ठापूर्वक आदेश पालन आँखों के सामने घूमने लगा । दिन निकलने पर लार्ड ने पुलिस के कप्तान को बुलाकर उस सिपाही की सत्यनिष्ठा और वफादारी की बात कही । स्वयं जाकर उस सिपाही की पीठ थपथपाई और कहा - " शाबाश छोसिंह ! तुम बहुत सच्चे आदमी हो । ऐसे सत्यनिष्ठ सिपाहियों की भर्ती अपनी पुलिस में अधिक से अधिक होनी चाहिए ।" वॉयसराय ने उस सिपाही की सत्यता, साहस और नियम पालन से प्रभावित होकर उसकी पदोन्नति कर दी, उसे कप्तान बना दिया । सचमुच सत्यनिष्ठ व्यक्ति किसी भी भय, स्वार्थ और प्रलोभन से अपनी सत्यनिष्ठा, वफादारी और कर्तव्यपरायणता से विचलित नहीं होता । कई लोग अवसरवादी होते हैं, वे अमुक समय पर तो सत्य बोलकर दूसरों को प्रभावित कर देते हैं, परन्तु आगे चलकर भय या प्रलोभन का प्रसंग उपस्थित होते ही सत्य को ताक में रख देते हैं । ऐसे व्यक्ति सत्यनिष्ठ न होने पर भी सत्यनिष्ठ होने का ढोंग करते हैं, किन्तु कभी न कभी उनकी कलई खुल ही जाती है । किसी यात्री के हाथ पर रेल्वे के डिब्बे की खिड़की का काँच गिरा । चोट तो उसे साधारण-सी आई थी, लेकिन रेल्वे कम्पनी से एक बड़ी राशि वसूल करने की नीयत से उसने कोर्ट में केस कर दिया । उसने अपने हाथ पर पट्टा बँधवा लिया । कोर्ट में जब वह पेशी पर गया तो लोगों से कहने लगा- 'मेरे हाथ में इतनी चोट आई है कि वह ऊपर को नहीं उठ रहा है।' रेल्वे कम्पनी की ओर से फिरोजशाह मेहता वकील थे । मजिस्ट्र ेट के सामने जिरह करते हुए वकील श्री मेहता ने उस व्यक्ति से पूछा - " भाई ! हाथ में चोट लगने से पहले तुम्हारा हाथ किस तरह ऊपर को उठता था ?" चोट लगे यात्री ने हाथ ऊपर को उठाते हुए कहा – “पहले तो इस तरह आसानी से उठ जाया करता था साहब !” बस, इसी क्रिया से साबित हो गया कि लेकिन वह जानबूझकर ऊपर नहीं उठा रहा है । ' उसके असत्य की कलई खुल गई । उसका हाथ ऊपर उठ सकता है, फलस्वरूप वह केस हार गया । वास्तव में असत्य के पैर कमजोर होते हैं। मनुष्य व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोषों के कारण असत्य की ओर लुढ़क जाता है । फिर तो वह व्यवस्थित ढंग से असत्य की ट्रेनिंग लेता है और सत्य की स्वाभाविकता खो बैठता है । ऐसा व्यक्ति असत्य बोलने का अभ्यास करता है, तब तो बड़ा आश्चर्य होता है कि बिना ही किसी स्वार्थ के यह झूठ क्यों बोलता है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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