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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १६५ हाँ तो, मैंने सत्यनिष्ठ में सत्य की त्रिवेणी धारा प्रवाहित होने की बात बताई-(१) वह स्वयं सत्य बोलेगा, (२) पार्श्ववर्ती जनों से सत्याचरण की अपेक्षा रखेगा और सत्य का आग्रह भी, और (३) सत्य का सतत अन्वेषण करता रहेगा। ___ यही कारण है कि सत्यनिष्ठ पुरुष का चित्त शुद्ध और सरल होने से उस पर प्रत्येक वस्तु उसी तरह प्रतिबिम्बित हो जाती है, जैसे दर्पण तल पर प्रत्येक चेहरा । इस कारण सत्यनिष्ठ पुरुष को अपनी गलती या दोष के विचार का भान तुरन्त हो जाता है । गलत मार्ग पर जाने का प्रसंग उसके लिए प्रायः कम हो जाता है क्योंकि गलत विचार या दोषयुक्त भाव आते ही वह तुरन्त संभल जाता है और वह सत्यरूपी भगवान की प्रेरणा से, आज्ञा से चलता है, इसलिए उनकी आज्ञा का भंग प्रायः नहीं करता। किसी कारणवश कभी गलती हो भी जाती है तो वह उसे सुधार लेता है, गलती को वह बिना झिझक के कबूल कर लेता है। इसलिए ठोकर लगते ही सीधे सरल सत्यमार्ग पर चला आता है । उसे सत्यमार्ग ही सीधा और सरल लगता है, सत्यभिन्न मार्ग टेढ़ा प्रतीत होता है । उसके विचार पाश्चात्य विचारक बुल्बर(Bulwer) के शब्दों में कहें तो यों कह सकते हैं "One of the sublimest things in the world is plain truth.” 'संसार की वस्तुओं में एकमात्र सरल सादा सत्य ही सर्वोत्कृष्ट है।' ऐसा सत्यनिष्ठ व्यक्ति निर्भय होता है। भय तो उसे होता है, जिसमें कुछ कमजोरी हो, जिसे अपने प्राणों का मोह हो, जो कदम-कदम पर अपने धन, साधन, सुख-सुविधा, मकान और प्रतिष्ठा, आदि की आसक्ति से लिपटा हो। जिसे इनकी चिन्ता नहीं है, एकमात्र सत्यभगवान पर अखण्ड विश्वास है, जो सत्यभगवान के चरणों में समर्पित है, उसे भय किसका? उसे कोई भी आतंक, विप्लव, शस्त्रास्त्र प्रहार डरा नहीं सकता। 'सत्ये नास्ति भयं किञ्चित्' यही उसका जीवनमन्त्र होता है। उसे कोई कितना ही डराए, धमकाए, सत्य से वह इन्च भी विचलित नहीं होता। मृत्यु उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती, व्याधि उसकी सत्यनिष्ठा भंग नहीं कर सकती, दरिद्रता आदि अन्य विपत्तियाँ उसे अपने सत्यपथ से डिगा नहीं सकतीं। पाश्चात्य विचारक रस्किन (Ruskin) के शब्दों में इसे दोहरा दूं तो कोई अत्युक्ति न होगी "He, who has the truth in his heart needs never fear.” "जो सत्य को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर लेता है, उसे कदापि डरने की जरूरत नहीं है । वह सर्वदा अजेय रहता है।" यद्यपि सत्य के आराधक पर कई बार विपत्तियाँ आती हैं, भयंकर कष्ट आते हैं, परन्तु वह उनसे घबराता नहीं, उन्हें वह अपनी सत्यनिष्ठा की कसौटी मानता है। ___ बात उन दिनों की है, जब भारत की राजधानी कलकत्ता थी। वहीं वॉयसराय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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