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________________ १६४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ रिवाजों को असत्य समझकर मानने से इन्कार कर देगा, वह स्वयं ऐसी कुरूढ़ियों का पालन नहीं करेगा। वह ऐसी घातक कुरूढ़ियों को वैचारिक असत्य मानेगा। क्योंकि सत्य वही है, जिससे प्राणिमात्र का हित हो। महाभारत में बताया है 'यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम ।' जो एकान्त रूप से प्राणिमात्र के लिए हितकर है, वही मेरे मत से सत्य है। मान लीजिए किसी सम्प्रदाय का अनुयायी सत्यार्थी साधक यह मानता है कि 'पशुबलि करना सत्य है, मद्य, मत्स्य, मांस, मुद्रा और मैथुन, ये पांच मकारों का सेवन करना सत्य है, शूद्र नीचे हैं, ब्राह्मण उच्च हैं, शूद्रों को वेद या शास्त्र नहीं पढ़ाना चाहिए, उनको छूना अधर्म है, या कोई मुस्लिम मौलवी यह मानता है कि दूसरे सम्प्रदाय वाले (काफिर) लोगों को जबरन मुसलमान बनाना धर्म है, पर्दाप्रथा धर्म है, मृतभोज करना सत्य है । बताइए प्राणियों के लिए तथा मनुष्यों के लिए अहितकर ये और ऐसी बातें क्या सत्य हो सकती हैं ? कदापि नहीं । यही कारण है कि सत्यनिष्ठ व्यक्ति केवल सत्य ही नहीं बोलता, मन-वचन-काया से सत्य का आचरण करता है, अपने साथियों से सत्य का आचरण कराने (सत्याग्रह) का प्रयत्न करता है और सत्यासत्य का भलीभाँति अन्वेषण करके सत्य विचारों या व्यवहारों को मानता है, असत्य विचारों को नहीं । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र (अ.६) में कहा है 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा।' 'अपने आप सत्य का अन्वेषण करे, ढूँढे और परखे।' कई बार सत्य परस्पर विरोधी और भिन्न दिखाई देता है, उस समय सत्यनिष्ठ साधक मन में घबराता नहीं। वह सोचता है, मनुष्य के मन की भूमिकाएँ, दृष्टिबिन्दु एवं अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, इसलिए सत्य भी अनेक रूप हो सकता है । सूर्य एक होते हुए भी, जितने और जैसे जलपात्र होंगे, तदनुसार उतने और वैसे ही सूर्य के प्रतिबिम्ब दिखाई देंगे । एक ही सत्य भगवान सब देहों में विराजमान है, फिर भी अभिव्यक्ति का आधारभूत मन प्रत्येक शरीर में विभिन्न स्वरूप का है। इसीलिए तो कहा गया है ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' 'एक ही सत्य का विद्वान् अनेक प्रकार से कथन करते हैं।' __ अतः सत्यनिष्ठ साधक परस्पर भिन्न दिखाई देने वाले सत्यों में सापेक्ष दृष्टि से समन्वय स्थापित करने का प्रयास करेगा, वह घबरायेगा नहीं वह जिस सत्य को पकड़ कर चल रहा है, उसे सरलता से, बिना किसी पूर्वाग्रह के अनाग्रहपूर्वक समझने का प्रयत्न करेगा, और अन्त:स्फुरित सत्य के अनुसार जिस समय जो सत्य प्रतीत होगा, उसी के अनुसार आचरण करेगा । वह मुक्तचिन्तन करेगा। १. सत्य की व्युत्पत्ति है— 'सद्भ्यो हितम् सत्यम्' –उत्तराध्ययन पाईयटीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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