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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १६३ रिक भावना से मानता है । कई बार लोग अपनी सत्यवादिता बताने के लिए शब्दों का आश्रय लेते हैं । फिर उन शब्दों का अर्थ खींचतान करके या तोड़मरोड़कर दूसरा ही लगाते हैं । बोलते समय उनका कुछ और भाव रहता है, परन्तु उस भाव पर अन्ततः टिका नहीं जाता या टिकना नहीं चाहते, तब वे शब्दों से चिपककर अपने आशय को बदल देते हैं । एक मौलवी ने कुरानेशरीफ में आए हुए पाठ — 'नमाज नहीं पढ़ना चाहिए, जब नापाक हों' में से जब नापाक हों, इन शब्दों को अंगुली से दबाकर गाँव में यह प्रचार कर दिया कि 'नमाज नहीं पढ़ना चाहिए,' ऐसा कुरान में लिखा है । दूसरे नये मौलवी आए और उन्होंने यह माजरा देखा तो दंग रह गए। लोगों में उलटा प्रचार सुनकर नये मौलवीजी ने पुराने मौलवी जी से ऐसा परम्परा विरुद्ध विधान करने का कारण पूछा तो उन्होंने 'जब नापाक हों' पर अंगुली दबाकर बता दिया" देख लो कुरानेशरीफ में लिखा है या नहीं ।" नये मौलवी उसकी चालाकी समझ गए और अँगुली हटवाकर पढ़ने को कहा । इस पर पुराने मौलवी की कलई खुल गई । वे बगलें झाँकने लगे । हाँ तो, मैं कह रहा था सत्यनिष्ठ व्यक्ति की पहचान यह है कि वह शब्दों की अपेक्षा आशय को पकड़ेगा । महात्मा गांधी जब विदेश गए थे, तब तीन प्रतिज्ञाएँ बेचरजी स्वामी से लेकर गए थे । उनमें से एक थी - 'मांसाहार न करना ।' विदेश में गांधीजी के मित्रों ने उनसे कहा - 'तुमने तो मांसाहार की प्रतिज्ञा ली है, अण्डे खाने में क्या हर्ज है ?" इस पर गाँधीजी ने कहा – “मेरी माता अण्डों एवं मछलियों के खाने को भी मांसाहार में मानती हैं, मैंने भी उसी आशय से प्रतिज्ञा ली थी । अतः अण्डों को मैं मांसाहार में समझकर सेवन नहीं कर सकता । " सत्यनिष्ठ साधक सत्य को बोलने तक ही सीमित नहीं समझता । जो सिर्फ सत्य बोलने को ही सत्य मानता है, समय आने पर सत्य सिद्धान्त का आग्रह नहीं रखता, सिद्धान्त के अनुसार अपना व्यवहार जरा भी नहीं बनाता। जब उसके साथ रहने वाले असत्य का आचरण करते हों तो वह यों कहकर छटक जाता है कि मैं स्वयं सत्य बोल सकता हूँ, सत्यसिद्धान्त का पालन कर सकता हूँ, मेरे साथ रहने वालों पर कैसे लाद सकता हूँ, ऐसे अर्धसत्य को सत्यनिष्ठ नहीं स्वीकार करता । साथ ही सत्यनिष्ठ व्यक्ति सत्य की खोज, सत्य का अन्वेषण सतत चालू रखेगा । सत्य का अन्वेषक परम्पराओं, रीतिरिवाजों, प्रथाओं एवं सामाजिक रूढ़ियों में आँखें मूदकर नहीं चलेगा । अगर कोई परम्परा या रीतिरिवाज अथवा प्रथा आज गलत है, उसके पालन से समाज में विषमता पैदा होती है, अधर्म फैलता है, हिंसा होती है, अत्यन्त खर्चीली होने से घातक है, या युग बाह्य है, विकास में बाधक है, आत्मिक परतंत्रता बढ़ाती है तो सत्यनिष्ठ साधक उन परम्पराओं, प्रथाओं या रीति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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