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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ १६१ युवक ने पश्चात्तापपूर्वक अपना अपराध स्वीकार किया। साथ ही ऐसा करने का कारण भी बताया। हजरत ने सारी कैफियत सुनकर कहा- "इसे मैं कानून की रूह से मौत की सजा देता हूँ।" युवक ने निवेदन किया- "मुझे आपके द्वारा दी गई मौत की सजा मंजूर है, परन्तु तीन दिन की मुद्दत दीजिए।" हजरत ने पूछा-"क्यों ?" उसने कहा-"एक मेरा छोटा भाई है। पिताजी ने मरते समय मुझे थोड़ासा सोना उसे देने के लिए सौंपा था, जो जमीन में गाड़ा हुआ है । मेरे सिवाय किसी को यह मालूम नहीं है । अतः मुझे इजाजत दीजिए कि मैं घर जाकर अपने छोटे भाई को वह अमानत सौंप आऊँ । यह काम निपटाकर मैं स्वयं हाजिर हो जाऊँगा।" हजरत ने कहा- 'तुम्हारा कोई जामिन है यहाँ कि अगर तुम तीन दिन बाद हाजिर न हो सको तो वह तुम्हारे बदले में मौत की सजा स्वीकार करले।". युवक ने कातर नेत्रों से पास ही बैठे हजरत मुहम्मद के दो सोहबतियों की ओर देखा । उनमें से एक अबूबकर साहब थे, वे इस युवक के जामिन बने । उन्होंने कहा "अगर युवक तीन दिन बाद नहीं आया तो मैं इसका जामित हूँ।" तीसरा दिन होने आया । सबकी आँखें उस युवक की ओर लगी थीं। जब गुनहगार युवक नहीं आया तो सभी व्याकुल हो उठे। दोनों फरियादियों ने अबूबकर से कहा- “साहब ! हमारा अपराधी कहाँ है ? उसे हाजिर करें।" अबूबकर ने दृढ़ता से जबाब दिया-"अगर तीन दिन पूरे बीत जाएँगे और अपराधी नहीं आएगा तो उसके बदले में प्राण देने को तैयार हूँ।" हजरत उमर सावधान होकर बैठे थे। तीसरे दिन दोपहर के बाद तक गुनहगार नहीं आया तो हजरत ने कहा--"अबूबकर ! गुनहगार यदि आज रात तक नहीं आया तो सजा का हुक्म तुम पर लागू किया जाएगा।" वहाँ बैठे हुए सभी लोग चिन्तातुर एवं भयविह्वल हो उठे। उस जमाने में हत्या का बदला हत्या से लेने का रिवाज था । अहिंसा का इतना विकास उस देश में नहीं हुआ था। अतः कुछ लोगों ने जामिन अबूबकर के साथ हमदर्दी दिखाते हुए फरियादियों से कहा- "अगर आज अपराधी न आए तो तुम हत्या का बदला हत्या से न लेकर इनसे धन लेकर संतोष मान लेना।" फरियादियों ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया। सभी चिन्तित हो उठे। इतने में तो अपराधी युवक दूर से आता दिखाई दिया। वह हाँफ रहा था, और पसीने से तरबतर था। आते ही उसने हजरत उमर एवं सबको सलाम किया और अर्ज की-"खुदा का शुक्रिया है, कि मैं समय पर पहुँच सका हूँ। मैं अपने भाई को सोना देकर तथा उसे पढ़ाने के लिए मामा को सौंपकर सीधा दौड़ता-दौड़ता आ रहा हूँ, ताकि मेरे जामिन को कोई कष्ट न पहुँचे, जो मुझ अपरिचित पर विश्वास । करके मेरे जामिन बने ।" यों कहकर उसने अबूबकर का हाथ चूमा । इस पर . अबूबकर ने कहा- "भाइयो ! इस युवक ने जब भरी सभा में मुझ पर विश्वास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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