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________________ १५६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ . से तटस्थ रहना इसलिए भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता । हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है । तब अभ्यासवश बुद्धिभ्रम हो जाने से दु:ख के समय भी वह गलत लग सकती है। चित्त की असंतुलित अवस्था में मनुष्य भावुकतावश कुछ का कुछ निर्णय ले लेता है। जिसका चित्त असंतुलित होता है, वह उद्विग्न रहता है । चिन्ता, शोक, भय, निराशा, घबराहट, क्षोभ, कायरता आदि चित्त के उद्वेग हैं। चित्त की शान्त, संतुलित अवस्था ही सबसे स्वस्थ और उपयोगी स्थिति है। इस स्थिति में मनुष्य का विवेक पूरी तरह जागृत रहता है और वह कर्तव्यपथ दिखाता रहता है। जैसे तराजू के दोनों पलड़े समान रूप से भारी होने के कारण डंडी को संतुलित रखते हैं, वैसे ही चित्त की पूर्ण संतुलित अवस्था में उद्वेग, उत्तेजना, भीति, शंका, वितर्क या व्यर्थ की उथल-पुथल नहीं रहती। चित्त की संतुलित और शान्त अवस्था में ही मनुष्य अपना भला-बुरा सोच सकता है । संतुलित अवस्था में ही मनुष्य अपने भविष्य का निर्माण कर सकता है। ___ शूद्रकुमार एम. आर. जयकर महाराष्ट्र का एक होनहार युवक था । उस समय अठारहवीं सदी का अन्तिम चरण चल रहा था। शूद्रजातीय व्यक्ति के प्रति ब्राह्मणों में छुआछूत और घृणा का भाव बहुत जोर-शोर से चल रहा था। जब जयकर ने एक दिन एक ब्राह्मण अध्यापक से संस्कृत पढ़ाने का अनुरोध किया तो वे आपे से बाहर हो गये। उस समय भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन था, इसलिए वे अपने क्रोध को उग्र रूप तो न दे सके, तथापि अध्यापक ने जयकर को. एकलव्य की संज्ञा देकर व्यंग्यबाणों से घायल करने में कोई कसर न रखी । पाठशाला में टंगे एक वाक्य-'स्त्रीशूद्रौ नाधीयेताम्' की ओर संकेत करते हुए वे साक्रोश बोले-“मूढ ! पढ़ इसे और समझ कि अनधिकारी होकर भी तू देववाणी संस्कृत के ज्ञान की आकांक्षा करता है।" जयकर ने शान्ति से उत्तर दिया-“यह वाक्य तो संस्कृत में है। अत: पहले मुझे आप उसका ज्ञान कराइए, तभी तो मैं उसे पढ़ और समझ सकंगा।" - अध्यापक अपने अस्त्र से स्वयं आहत हो गया। बात का रुख बदलकर बोला - "संस्कृत देववाणी है। बिना तप और साधना के उसकी प्राप्ति नहीं होती और तुम शूद्रों में उसका नितान्त अभाव है।'' जयकर ने पुनः कहा ... "गरुजी! यदि कोई विद्या शद्र को नहीं आ सकती तो एकलव्य को अनुर्वेद कैसे उपलब्ध हो गया ?" अध्यापक से अब न रहा गया। उसने जयकर को तिपाई पर खड़े रहने का दण्ड देते हुए कहा--"जब तक तेरे मस्तिष्क से संस्कृत पढ़ने का विचार न निकल जाये तब तक यों ही खड़ा रह । देखूगा, तुझमें संस्कृत पढ़ने की कितनी जिज्ञासा है ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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